________________
वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ४७३ धर्मावलम्बी बन गया था । सुन्दर पाण्ड्य के तीन और नाम उपलब्ध होते हैं, पहला नेदुमार, दूसरा कुन पाण्ड्यन और तीसरा कुब्ज पाण्ड्य ।
जिस प्रकार पल्लवराज महेन्द्रवर्मन (प्रथम) (कांचिपति) और कुन् पाण्ड्यन, नेदुमारन अपर नाम सुन्दर पाण्ड्यन (मदुरा का पाण्ड्य राजा) ये दोनों समकालीन थे, उसी प्रकार शैव महासन्त ज्ञानसम्बन्धर पौर शैव महासन्त तिरु अप्पर-ये दोनों शैव संत भी समकालीन थे। इनमें ज्ञानसम्बन्धर स्वल्पजीवी' और अप्पर दीर्घजीवी अनुमानित किये जाते हैं। प्रप्पर और ज्ञानसम्बन्धर को तमिल प्रदेश में शैव धर्मक्रान्ति के सूत्रधार तथा पल्लवराज महेन्द्रवर्मन (प्रथम) एवं मदुरा के पाण्ड्य महाराजा सुन्दर पाण्ड्य (कुन पाण्ड्यन) को उनके सक्रिय प्रबल पोषक अथवा प्रसारक समझा जाता है। पल्लवराज महेन्द्रवर्मन (प्रथम) का शासनकाल विक्रम सं० ६५७ से ६८७ तदनुसार वीर नि० सं० ११२७ से ११५७ तक का अनुमानित किया जाता है, जो कि लगभग निश्चित सा ही है।
तिरु ज्ञानसम्बन्धर ने सुन्दर पाण्ड्य को अपना परम भक्त बना कर अपने निर्देशन में उसके पादेश से सर्वप्रथम मदुरा में ५००० जैन साधुओं को धानी में पिलवा दिया। इसी प्रकार तिरु अप्पर ने कांचिपति पल्लवराज महेन्द्रवर्मन् (प्रथम) को अपना दृढ़ अनुयायी बना कर जैनों का सामूहिक रूप से बलात् धर्म परिवर्तन करवाया। तिरु प्रप्पर शव सन्त बनने से पहले न केवल एक अग्रगण्य जैनाचार्य ही थे अपितु पाटलिपुरम् (वर्तमान तिरुप्पपुलियु-तिरु पल्हिरिपुरम्) नगर के जैन मुनियों के मठ के प्रधान भी थे। इस रूप में घर के भेदों को जानने वाला व्यक्ति यदि घर को उजाड़ने के लिये उद्यत हो जाय तो साधारण घर की तो बात ही क्या लंका जैसे अभेद्य सुदृढ़ दुर्ग वाली लंका नगरी को भी देखते ही देखते धराशायी करवा सकता है- इस लोकोक्ति के अनुसार शैव सन्त बनने के पश्चात् तिरु अप्पर जैन धर्म के लिये सर्वाधिक घातक सिद्ध हुए। इन दोनों सन्तों के जीवन वृत्त एवं उनके द्वारा जैन धर्म पर किये गये घातक प्रहारों के सम्बन्ध से आगे विस्तार के साथ प्रकाश डाला जायगा।
विक्रम की सातवीं शताब्दी के पूर्व तक जैन धर्म तमिल प्रदेश का प्रमुख, सशक्त एवं बहुजनसम्मत धर्म रहा किन्तु मदुरा के राजा सुन्दर पाण्ड्य और काञ्ची के पल्लव राज महेन्द्रवर्मन (प्रथम) के शासन काल में इस पर संकट के बादल मंडराने लगे । वस्तुतः दक्षिणापथ में जैन संघ पर यह एक घातक प्रहार था। इस प्रहार से दक्षिण में जैनधर्म की ऐसी अपूरणीय क्षति हुई कि जिसकी पूर्ति लगभग १३ शताब्दियों के प्रयासों के उपरान्त भी प्राण तक नहीं हो पाई है।
'हिस्ट्री एण्ड कल्चर प्रॉफ दी इंडियन पिपुल वाल्यूम ३, पेज ३३० तीसरी प्रावृत्ति
सन् १९७० भारतीय विद्या भवन, बम्बई द्वारा प्रकाशित ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org