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________________ ४७२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ है कि नालडियार जिस समय वर्तमान रूप में लिपिबद्ध किया गया, उस समय मदुरा पर कलनों का राज्य था ।' कलनों का तमिल प्रदेश पर अनुमानत: प्रर्द्ध शताब्दी तक शासन रहा । कडुंगोन नामक मदुरा के पाण्ड्य राजा ने एक घोर से तथा दूसरी ओर से कांचीपति पल्लव राज सिंह विष्णु ने सैनिक दृष्टि से सुनियोजित ढंग से कलनों पर प्राक्रमण प्रारम्भ किये और उन्होंने एक कड़े संघर्ष के पश्चात् कलनों की सत्ता को समाप्त " करने में सफलता प्राप्त की । कलनों के शासन को समाप्त करने के अनन्तर भी कांचीपति पल्लवराज सिंह विष्णु ने सन्तोष नहीं किया । उसने अपने राज्य की सीमाम्रों का काबेरी तक के सम्पूर्ण भूभाग को जीतकर कावेरी तक उसका विस्तार किया । उसे अनेक बार पांड्यराज कडुंगोन और श्री लंका के शासक के साथ भी संघर्ष करने पड़े । अनेक सैनिक अभियानों में निरन्तर सफलता प्राप्त करने के पश्चात् सिंह विष्णु ने अवनिसिंह की उपाधि धारण की। मामल्लपुरम् ( महाबलीपुरम् ) में जो भगवान् वराह की गुफा है, उस गुफा में सिंह विष्णु तथा उसके पुत्र महेंद्रवर्मन् के चित्र, उभरी हुई नक्काशी में चित्रित, श्राज भी विद्यमान हैं । पल्लवरा सिंह विष्णु ने वीर नि. सं. १९०२ से ११२७ तक कांची के सिंहासन से राज्य करते हुए अपने राज्य को सुदृढ़ और शक्तिशाली बनाया। सिंह विष्णु विष्णुभक्त था । किन्तु उसका पुत्र महेन्द्रवर्मन् ( प्रथम ) जैनधर्मावलम्बी था । & वीर नि. सं. १९२७ में महेंद्रवर्मन ( प्रथम ) कांची में पल्लवों के राजसिंहासन पर आसीन हुआ। वह बहुमुखी प्रतिभात्रों का घनी कुशल राज्य निर्माता, कवि एवं संगीतज्ञ था । उसमें उसके पिता के समान ही राज्य विस्तार की लालसा थी. नौर उसने उत्तर में कृष्णा नदी के तट से भी श्रागे तक अपनी राज्य सीमानों का विस्तार किया । तमिल प्रदेश में जैन धर्म के शताब्दियों से चले आ रहे वर्चस्व पर वातक प्रहार करने वाला शैव महासन्त तिरुश्रप्पर इसका न केवल समकालीन ही था प्रपितु उसका गुरु भी था। अप्पर के संसर्ग में आने के पश्चात् कांचीपति पल्लवराज महेन्द्रवर्मन् ने जैनधर्म का परित्याग कर शैव धर्म अङ्गीकार कर लिया । तिरु अप्पर के समकालीन शैव महासन्त ज्ञानसम्बन्धर के चमत्कारों से प्रभावित होकर मदुरा का राजा सुन्दर पाण्ड्य भी जैन धर्म का परित्याग कर शैव " स्टडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म, एम. एस. रामास्वामी अय्यंगर एण्ड बी. शेर्पा गिरि राव एम. ए. विजयनगर, पृष्ठ ८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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