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________________ ४७० । [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ वस्तुस्थिति वास्तव में इससे नितान्त भिन्न ही है। दर्शनसार में केवल द्रविड़ संघ ही नहीं अपितु जैनों में समय-समय पर श्वेतपट संघ, यापनीय संघ, काष्ठा संघ, माथुर संघ आदि विभिन्न इकाइयों के रूप में उत्पन्न हुए जैन संघ के ही भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों, आम्नाओं अथवा शाखा-प्रशाखामों के प्रादुर्भाव. का वर्णन है । विक्रम की प्रथम शताब्दी के लगभग सभी धर्मों के भेदभाब की भावना से रहित उच्चकोटि के विद्वानों के जो संगम आयोजित किये जाते रहते थे और जिनमें सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ---रचनामों को उस संगम की ओर से मान्यता प्रदान की जाती थी, उस कार के संगम से मदुरा में हुए द्रविड़ संघ का कोई सम्बन्ध नहीं। जैन श्रमण के लये परम्परा से जो कार्य वर्जनीय माने गये हैं, वज्रनन्दि ने अपने पक्ष के श्रमणों को उनमें से कतिपय कार्य करने की अनुज्ञा प्रदान की, अर्थात जैन श्रमण की दिनचर्या के कठोर आचरणीय कार्यों से कतिपय में छूट दी। वह कोई देश के चोटी के वेद्वानों की महान् कृतियों के गुणावगुण प्रांकने के लिये आमन्त्रित विद्वद्वर्यों का संगम नहीं अपितु पहले से ही अनेक इकाइयों में विभक्त हुए जैन संघ में एक और फूट उत्पन्न करने वाला कतिपय साधुओं का सम्मिलन मात्र था, जिसमें निम्नलिखित घोषणाएं की गई :-- बीजों में कोई जीव नहीं होता। प्रासुक, सावद्य अथवा गहीकल्पित आदि को हम नहीं मानते। कृषि, वाणिज्य आदि से साधु अपना पोषण करे और शीतल जल से स्नान करे । इसमें कोई दोष अथवा पाप नहीं है। __ तमिल भाषा के प्राचीन जैन साहित्य में सर्वप्रथम स्थान पर 'तिरु कुरल' और दूसरे स्थान पर 'नालडियार' की गणना की जाती है। नालडियार में 'मुत्तरायर' के नाम से कलभ्रों का बड़े आदर एवं सम्मान के साथ दो स्थानों पर उल्लेख किया गया है । यह पहले बताया जा चुका है कि तमिल प्रदेश पर अपना अधिकार स्थापित कर लेने एवं चोल, चेर एवं पाण्ड्य इन तीन शक्तिशाली राज्यों के स्वामी बन जाने के पश्चात् कलभ्रों ने यह मुत्तरायर उपाधि धारण की। नालडियार के पद अथवा छंद संख्या २०० में कल भ्रों की दानशीलता की प्रशंसा करते हुए कहा गया है -- "तीन भूमियों अर्थात् तीन शक्तिशाली राज्यों के स्वामी बड़ी ही उदारतापूर्ण प्रसन्नता के साथ पेट भर चावल और स्वादिष्ट भोजन लोगों को देते हैं । वस्तुतः वे (तीन भूमियों के स्वामी) महान् हैं।'' इसी प्रकार नालडियार के छन्दोबद्ध पद संख्या २६६ में कलभ्रों को तीन मियों के स्वामी के नाम से स्मरण करते हए कहा गया है -- "वे लोग वास्तव में गरीव अथवा कंगाल ही हैं, जो अपार सम्पत्ति के स्वामी दिखते हुए भी लोगों को (अन्न, वन आदि के रूप में) कुछ भी नहीं देते। तीन शक्तिशाली राज्यों के स्वामी मुत्तरायर (कलभ्र) वस्तुतः ऐसे सम्पत्तिशाली मानव हैं, जिनकी सम्पत्ति का कोई पारावार नहीं।" Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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