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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ३
सेण्डलेइ (चेन्द्रलेघई) के जिस उपर्युल्लिखित अभिलेख को श्री टी. ए. गोपीनाथ राव ने सेन तमिल के वोल्यूम सं० ६ में प्रकाशित करवाया है, वह सेण्डलेइ ग्राम के 'मीनाक्षी सुन्दरेश्वरार' नामक शैव मन्दिर के स्तम्भों पर बड़े ही सुन्दर ढंग से उट्ट कित है। इन स्तम्भों के सम्बन्ध में श्री गोपीनाथ राव का अभिमत है कि वस्तुतः ये स्तम्भ किसी अन्य मन्दिर के स्तम्भ थे, संभवतः पूर्वकाल में ये किसी सिल्वन देवी के मन्दिर के स्तम्भ हों। इन स्तम्भों पर 'पेरम्पिगु मुत्तराइयन' नामक राजा और उसके उत्तराधिकारी राजाओं के नाम उट्ट कित हैं, जो इस प्रकार हैं :
१. पेरम्पिडुगु मुत्तरायन प्रथम-अपर नाम कुवावन मारन् । उसका पुत्र :२. ल्लंगोवति एरैयन-अपरनाम-मारन परमेश्वरन्, उसका पुत्र :३. पेरम्पिडुगु मुत्तराइयन द्वितीय, अपरनाम-सुवरन मारन् ४. श्री मारन् ५. श्री कल्वरकल्वन, ६. श्री शत्रुकेसरी ७. श्री कलभ्रकल्वन
८. श्री कल्वकल्वन्
स कल्वकल्वन के स्थान पर कहीं-कहीं पण्डारम् भी है। इनकी मारन और नेन्दुमारन इन उपाधियों से यही प्रकट होता है कि ये पाण्ड्यों के विजेता थे। उक्त अभिलेख में उल्लिखित राजाओं के प्रागे कल्वरकल्वन, कलभ्रकल्वन और कल्वकल्वन-ये तीन उपाधियां उट्टङ्कित हैं, उन तीनों का एक ही अर्थ होता हैलूटेरों के लुटेरे, अथवा राजाओं को लूटने वाले। इससे यह अनुमान किया जाता है कि वेल्विकुण्डी के दानपत्र में जिन कलम्रों का उल्लेख है, वे वास्तव में कल्वर अथवा कल्लार थे । कल्वर शब्द भी देखा जाय तो कलभ्र शब्द का ही दूसरा रूप है क्योंकि कन्नड़ भाषा में 'भ' को 'ब' पढ़ा जाता है।
जब उन कलभ्रों ने पाण्ड्य राज्य पर विजय प्राप्त कर उसे कुछ समय के लिये अपने अधिकार में कर लिया तो इस विजय के उपलक्ष में कलभ्र राजाओं ने 'मुत्ताराइन' की उपाधि धारण कर ली । 'मुत्ताराइन' शब्द का एक अर्थ तो होता हैं 'तीन राज्यों अथवा तीन धरतियों के स्वामी' और दूसरा अर्थ होता है 'मोतियों के स्वामी।' इन राजाओं द्वारा धारण की गई 'सुत्ताराइन' उपाधि का यहां पहला अर्थ ही उपयुक्त प्रतीत होता है, क्योंकि वेल्विकुण्डी-दानपत्र के उल्लेखानुसार
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