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इसके पश्चात इन दो धाराओं में से भी गच्छ और उपगच्छ के रूप में अनेक धाराएं उपधाराएं प्रस्फुटित हो गईं। इस प्रकार जैन संघ की अखंडता में बाधा समुपस्थित हुई। तथापि सद्भाग्य से समय-समय पर ऐसी विशिष्ट विभूतियां आती रहीं जिससे संघ में आचार और विचार की दृष्टि से परिष्कार होता रहा। उन महान् विभूतियों का उत्कृष्ट आचार और विचार भूले बिसरे साधक साधिकाओं के लिये सम्बल के रूप में उपयोगी रहा।
साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा इतिहास का लेखन अत्यन्त दुरूह कार्य है। उसमें सत्य तथ्यों की अन्वेषणा के साथ ही लेखक की तटस्थ दृष्टि अपेक्षित है। यदि लेखक पूर्वाग्रह से ग्रस्त है और उसमें तटस्थ दृष्टि का अभाव है तो वह इतिहास लेखन में सफल नहीं हो सकता। मुझे परम आल्हाद है कि आचार्य प्रवर श्री हस्तीमलजी महाराज एक तटस्थ विचारक, निष्पक्ष चिंतक और आचार परम्परा के एक सजग प्रहरी सन्त रत्न हैं। उनके जीवन के कण-कण में और मन के अणु-अणु में आचार के प्रति गहरी निष्ठा है
और वह गहरी निष्ठा इतिहास के लेखन की कला में भी यत्र तत्र सहज रूप से मुखरित हुई है। प्रत्येक लेखक की अपनी एक शैली होती है। विषय को प्रस्तुत करने का अपना तरीका होता है। प्रत्येक पाठक का लेखक के विचार से सहमत होना आवश्यक नहीं तथापि यह साधिकार कहा जा सकता है कि आचार्य प्रवर के तत्वावधान में बहुत ही दीर्घदर्शिता से इतिहास का लेखन किया गया है। उनकी पारदर्शी सूक्ष्म प्रतिभा के संदर्शन ग्रन्थ के प्रत्येक अध्याय में किये जा सकते हैं।
"जैन धर्म का मौलिक इतिहास" नामक दो विराटकाय ग्रन्थ आचार्य श्री पूर्व में दे चुके। जिन ग्रन्थों की मूर्धन्य मनीषियों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है और उन्हें आचार्यश्री की अपूर्व देन के रूप में स्वीकार किया है। उसी लड़ी की कड़ी में यह तीसरा भाग भी आ रहा है। पूर्व के दो भागों की अपेक्षा इस भाग के लेखन में लेखक को अधिक श्रम करना पड़ा है। इतिहास का यह ऐसा अध्याय है जो तमसाच्छन्न था। अनेक ऐसी विसंगतिया थी, जिन्हें सुलझाना सामान्य लेखक की शक्ति से परे था । पर लेखक ने अपने गम्भीर अध्ययन, गहन अनुभव एवं आचार्यश्री के अत्युत्तम मार्ग-दर्शन के आधार पर इस अध्याय को ऐसा आलोकित किया है कि पाठक पढ़ते-पढ़ते आनन्द से झूमने लगता है। लेखक ने इस बात पर अत्यधिक बल दिया है कि श्रमण संस्कृति की गौरव गरिमा आचारनिष्ठा में ही सन्निहित है। जब साधक का आचार शैथिल्य की ओर कदम बढ़ा तब उसका पतन हुआ। जैन धर्म के ह्रास का मूल कारण आचार की शिथिलता है और विकास का कारण आचार की पवित्रता है। शिथिलाचार के विरोध में उनकी लेखनी द्रुततम गति से चली है पर साथ ही यह भी सत्य सिद्ध है कि सत्य तत्थ को प्रकट करना ही लेखक का प्रमुख उद्देश्य और चरम लक्ष्य रहा है, न कि किसी भी प्रकार से किसी की भावना को चोट पहुंचाना । न ही किसी भी परम्परा का विरोध करना या उसका खंडन करना उनका लक्ष्य रहा है।
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