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श्री देवेन्द्र मुनि 'शास्त्री' के उद्गार एक अवलोकन
| अतीत काल से ही मानव के अन्तर्मानस में ये प्रश्न उद्भूत होते रहे हैं कि मैं कौन हूं ? कहा से आया हूं? मेरा स्वरूप क्या है ? और मैं यहां से कहां जाऊंगा ? जिस प्रकार वह स्वयं के सम्बन्ध में जानना चाहता है, उसी प्रकार उसके अन्तर्मानस में परिवार, समाज, साहित्य और संस्कृति प्रभृति विषयों के सम्बन्ध में भी जानने की उत्कट जिज्ञासा रहती है।
यह जिज्ञासा वृत्ति ही ज्ञान, विज्ञान, इतिहास और परम्परा की अन्वेषण के मूल में रही हुई है। हमारा स्वर्णिम अतीत किस प्रकार व्यतीत हुआ है, यह प्रत्येक जिज्ञासु जानना चाहता है। पर प्रत्येक व्यक्ति में जानने की ललक होने पर भी प्रतिभा की तेजस्विता के अभाव में वह जान नहीं पाता। कुछ विशिष्ट मेधावी व्यक्ति, अपनी गौरव गरिमापूर्ण प्रतिभा से उन अप्रकट रहस्यों की परतों को समुद्घाटित कर, विशृंखलित शृंखलाओं को इस प्रकार समायोजित करते हैं कि प्रबुद्ध पाठक और सामान्य जिज्ञासु भी उन गुरु गम्भीर ग्रन्थियों को सहज ही सुलझा लेता है।
जैन धर्म विश्वका महान् वैज्ञानिक धर्म है। दर्शन है। यह आत्मा के परम और चरम विकास में आस्था रखने वाला धर्म है, जो साध्य और साधना, दोनों की पावन पवित्रता में विश्वास रखता है। इसमें आचार और विचार की समान शुद्धि पर बल दिया गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से जैन धर्म विश्व का प्राचीनतम धर्म है। इसे मनुष्य लोक की अपेक्षा अनादि और अनन्त कहा जाय तो भी अत्युक्ति नहीं होगी ।
यिह धर्म एक स्वतन्त्र धर्म है। यह न वैदिक धर्म की शाखा है और न बौद्ध धर्म की। पुरातत्व, भाषा, विज्ञान, साहित्य और नृतत्व विज्ञान आदि से यह स्पष्ट हो गया है कि वैदिक काल से भी पूर्व भारत में एक बहुत ही समृद्ध संस्कृति थी, जो समय-समय पर विभिन्न नामों से जानी पहिचानी जाती रही, और वही संस्कृति आज जैन संस्कृति के नाम से लोक विश्रुत हैं। इस संस्कृति के पुरस्कर्ता वर्तमान अवसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर हुए हैं भगवान ऋषभदेव, वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी जिनकी गुण गरिमा का बखान किया गया है। उनके पश्चात् अजितनाथ आदि २२ तीर्थंकर हुए, जिनमें कितने ही तीर्थंकर प्रागैतिहासिक युग के हैं तो कितने ही ऐतिहासिक युग के हैं । भगवान् महावीर चौबीसवें तीर्थंकर हैं ।
[भगवान् महावीर के पश्चात् अनेक ज्योतिर्धर आचार्यों की पावन परम्परा चली। ऐतिहासिक दृष्टि से भगवान् महावीर के पश्चात् बारह बारह वर्ष के भयंकर दुष्कालों के कारण श्रमणों की आचार संहिता में शैथिलय ने प्रवेश किया । आचार शैथिल्य के कारण विचारों में भी परिवर्तन हुआ, जिसके फलस्वरूप श्रमण परम्परा श्वेताम्बर और दिगम्बर के रूप में विभक्त हुई।)
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