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________________ जिनभद्रगरिण क्षमाश्रमण के युगप्रधानाचार्य काल के विशिष्ट प्रतिभाशाली प्राचार्य (१) सिद्धसेन क्षमाश्रमण तीसवें युगप्रधानाचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के युगप्रधानाचार्य काल में सिद्धसेन क्षमाश्रमण नामक एक विशिष्ट प्रतिभाशाली प्राचार्य हुए हैं। वे जिनभद्रगरिण क्षमाश्रमण का गुरु तुल्य सम्मान करते थे। श्री सिद्धसेन क्षमाश्रमण ने जीतकल्प चूणि और निशीथ भाष्य की रचना की। उन्होंने जीतकल्प रिण के आद्य मंगल में जिनभद्रगरिण को नमस्कार करते हुए उनके लिए "मुरिणवरा सेवंति सया" (गाथा सं. ६) और "दससु वि दिसासु जस्स य अणुप्रोगो भमई" (गाथा सं. ७) इन पदों में वर्तमान काल का प्रयोग किया है। इससे अनुमान किया जाता है कि वे जिनभद्रगरिण के साक्षात् शिष्य अथवा समकालीन लघुवयस्क प्राचार्य हों। (२) कोट्याचार्य युगप्रधानाचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के युगप्रधानाचार्य काल में कोट्याचार्य नामक एक विद्वान् प्राचार्य हुए। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में विशेषावश्यक भाष्य की स्वोपश वृत्ति की रचना प्रारम्भ की थी और वे षष्टम गणघरवाद तक ही इस वृत्ति की रचना कर पाये थे कि १०४ वर्ष, ६ मास और ६ दिन की प्रायु पूर्ण कर स्वर्गवासी हो गये । इस प्रकार प्रापकी वह विशेषावश्यक की स्वोपज्ञ वृत्ति प्रपूर्ण ही रह गई थी। कोट्याचार्य ने उस अपूर्ण रही हुई वृत्ति को १३७०० श्लोक परिमाण में पूर्ण किया ऐसा अनुमान किया जाता है कि श्री कोट्याचार्य उन महान ग्रन्यकार युगप्रधानाचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के ही शिष्य थे और उन्होंने निरन्तर अपने गुरु की सेवा में रहकर इन महान् ग्रन्थों के प्रणयन में उनको उनके अन्तिम दिनों तक सहयोग देते रहे थे। वे अपने गुरु जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के मागमपक्षीय ज्ञान और उनकी शैली से पर्याप्तरूपेण परिचित कृपा पात्र शिष्य थे। अपने गुरु की अपूर्ण रही रचना को शिष्य के द्वारा पूर्ण किये जाने के अनेक उदाहरण जैन वांग्मय में उपलब्ध होते हैं । अपने गुरु की ग्रन्थप्रणयन शैली से परिचित होने के परिणामस्वरूप ही वे विशेषावश्यक भाष्य की अपूर्ण रही विशाल वृत्ति को पूर्ण करने में सफल हुए। युग प्रधानाचार्य जिनभद्रगति के प्राचार्यकाल के अन्य गण एवं गच्छ जिनभद्रगरिण क्षमाश्रमण के युगप्रधानाचार्य काल में वीर नि. सं. १०७६ में नागेन्द्र गच्छ की स्थापना हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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