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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ४५१ के दिन वल्लभी में महाराजा शिलादित्य (प्रथम) के राज्यकाल में विशेषावश्यक भाष्य की रचना की। आपसे उत्तरवर्ती रचनाकारों ने आपकी कृति विशेषावश्यक भाष्य को जैन सिद्धांत ज्ञान का महोदधि एवं अक्षय भण्डार और जैन साहित्य रत्नाकर का अनमोल ग्रन्थरत्न बताकर आपकी प्रशंसा की है। अनेक जैनाचार्यों ने आपकी इस कृति को दुःषमाकाल के निबिड़तम अंधकार में निमग्न जिन-प्रवचनों को प्रकाशित करने वाले प्रशस्त प्रदीप की उपमा दी है। वस्तुतः देखा जाय तो जैन सिद्धांतों से सम्बन्धित ऐसा कोई विषय अवशिष्ट नहीं रहा है, जिस पर विशेषावश्यक भाष्य में प्राप द्वारा प्रकाश न डाला गया हो। वीर निर्वाण की ११वीं शताब्दी वास्तव में भाष्यों और चूणि साहित्य के निर्माण का प्रारम्भिक युग था। आपके युगप्रधानाचार्य पद पर आसीन होने से पूर्व “वसुदेव हिंडी" के यशस्वी रचनाकार संघदास क्षमाश्रमण और उनके सहयोगी "धम्मिल्लहिंडी" के रचनाकार धर्मसेनगगि ने पंचकल्प भाष्य की रचना की थी। ऐसा प्रतीत होता है कि इसी से आपको विशेषावश्यक भाष्य के प्रणयन की प्रेरणा मिली हो । प्रापने अनुयोग चूर्षिण की भी रचना की। चूणि साहित्य के निर्माण का प्रारम्भ भी जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण से ही हा। आपके समकालीन पर लघवयस्क प्राचार्य सिद्धसेन क्षमाश्रमण ने आप द्वारा रचित ग्रन्थ जीतकल्प पर चूणि का निर्माण किया । वर्तमान में उपलब्ध चूणि साहित्य में जिनभद्रगरिण क्षमाश्रमण द्वारा रचित अनुयोगचूणि की गणना सबसे पहली चूणि के रूप में की जाती है | जिनदासगणि और हरिभद्रसूरि ने अपनी कृतियों में इसका पूरा उपयोग किया है । देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण से उत्तरवर्ती आचार्यों में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण को आगमों का प्रबल पक्षधर माना गया है। उन्होंने अपनी रचनाओं में प्रागम को सर्वोपरि मान कर पागम के आधार पर दर्शन को प्रतिष्ठापित किया है, न कि दर्शन के आधार पर आगम को । -awaren नियुक्ति, प्रवचूरिंग, चूरिण, भाष्य और टीका--- इन सब की गणना प्रागमों के व्याख्या ग्रन्थों के रूप में की जाती है। जहां आगमों का गूढार्थ समझ में न आये वहां पहले नियुक्ति की, नियुक्ति से भी समझ में न आये तो क्रमशः अवचूरिण, चरिण, भाष्य और टीका ग्रन्थों की सहायता की अपेक्षा रहती है। इस दृष्टि से भी (जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अनुयोग चूणि, विशेषावश्यक भाष्य और विशेषावश्यक भाष्य की टीका की रचना कर जिनशासन की महती सेवा की। जिनभद्रगरिण क्षमाश्रमण ने ३० वर्ष तक सामान्य साधु-पर्याय में और ६० वर्ष तक युगप्रधानाचार्य पद पर रहते हुए कुल मिलाकर ६० वर्ष के अपने साधनाकाल में विपुल साहित्य का सृजन कर जिनशासन की उल्लेखनीय सेवा की । १०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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