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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य . ]
[ ४४५ है। दिगम्बर परम्परा की एक भी पट्टावली में इन प्राचार्य गुणधर का नाम कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। इन्द्रनन्दी ने तो श्रुतावतार में स्पष्ट रूपेण लिखा है कि गुणधर और घरसेन की गुरु शिष्य परम्परा का पूर्वापर क्रम कहीं उपलब्ध नहीं होता। उन गुणधर द्वारा रचित कषाय पाहुड़ के गहन गूढार्थ को वाचक आर्य मंक्षु और वाचक आर्य नागहस्ती ने सम्यगरूपेण हृदयङ्गम किया। यतिवृषभ ने कषाय पाहुड़ की गाथाओं के गहन अर्थ को प्रार्य मंक्षु और आर्य नागहस्ती से ग्रहण किया। इन वाचक द्वय मार्य मंक्ष और प्रार्य नागहस्ती के नाम भी दिगम्बर परम्परा की पट्टावलियों में कहीं उपलब्ध नहीं होते । उपलब्ध होने की संभावना भी नहीं क्योंकि वाचक परम्परा श्वेताम्बर संघ की परम्परा रही है। दिगम्बर संघ में उसका कभी अस्तित्व ही नहीं रहा।
इस प्रकार की स्थिति में शोधप्रिय विद्वानों के समक्ष निम्नलिखित प्रश्न उभर कर पाते हैं :१. कषाय पाहुड़ के रचनाकार गुणधर वस्तुतः कहीं श्वेताम्बर परम्परा
की मान्यतानुसार भगवान् महावीर के ११वें पट्टधर प्राचार्य गुरणसुन्दर ही तो नहीं हैं जिनका आचार्य काल वीर नि० सं० २६१ से वीर नि० सं० ३३५ रहा और जो दशपूर्वधर प्राचार्य थे । गुणसुन्दर और गुणधर ये दोनों नाम भी परस्पर एक दूसरे के पूरक ही प्रतीत होते हैं। आर्य गुणसुन्दर से ११६ वर्ष पश्चात् अर्थात् वीर नि० सं० ४५४ में वाचनाचार्य पद पर आसीन हुए मार्य मंक्षु और उनके शिष्य नागहस्ती से यतिवृषभ नामक मेधावी मुमुक्षु ने उन दोनों का शिष्यत्व स्वीकार कर उनसे कषाय पाहुड़ का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्तकर कषाय पाहुड़ चूणि की कहीं रचना नहीं की हो और इस प्रकार कषाय पाहुड़ कहीं श्वेताम्बर-दिगम्बर विभेद से ३००-३२५ वर्ष पूर्व का दशपूर्वघर द्वारा रचित पागम तो नहीं है ।
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