SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 502
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ मंक्षु और नागहस्ति का शिष्य बताया है। परन्तु कषाय पाहुड़ की चूरिण में अथवा अन्यत्र कहीं यति वृषभ ने अपने आप को आर्य मंक्ष का शिष्य और नागहस्ती का अन्तेवासी प्रकट नहीं किया है। इतना सब कुछ होते हुए भी जय धवलाकार के इस कथन में विश्वास न करने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता कि आर्य मंक्षु के शिष्य और नागहस्ती के अन्तेवासी प्राचार्य यतिवृषभ ने कषाय पाहुड चूरिण की रचना की। "प्राचार्य यतिवृषभ वाचक आर्य मंक्षु और वाचक आर्य नागहस्ती के शिष्य थे"-जयधवलाकार के इस कथन पर विश्वास कर लेने के पश्चात् एक नवीन तथ्य प्रकाश में आता है । वह यह है कि 'कषाय पाहड़ चूरिण' के रचनाकार आचार्य यतिवृषभ और 'तिलोय पण्णत्ति' के रचनाकार यतिवृषभ भिन्न-भिन्न काल में हुए एक ही नाम के दो भिन्न प्राचार्य थे । कषाय पाहुड़ चूणि के रचनाकार पहले यतिवृषभ आर्य मंक्षु और आर्य नागहस्ती के शिष्य होने के परिणाम स्वरूप वीर निर्वाण की पांचवीं शताब्दी (वीर नि० सं० ४५४ अर्थात् श्वेताम्बर-दिगम्बर भेद से १५५ वर्ष पूर्व) के प्राचार्य थे। . इसी नाम के दूसरे यतिवृषभाचार्य ने अपने ग्रन्थ तिलोय पण्णत्ति में वीर नि. सं. १००० तक के काल में हुए राजाओं का उल्लेख किया है, इससे यह सिद्ध होता है कि तिलोय पण्णत्तिकार यतिवृषभाचार्य विक्रम की पांचवीं छठी शताब्दी के प्राचार्य थे। यतिवृषभाचार्य के काल निर्णय में यहीं इति श्री नहीं हो जाती । वस्तुतः यह शोध का एक प्रत्यन्त महत्वपूर्ण विषय है। अब तक विद्वानों ने इस नितरां निगूढ़ ऐतिहासिक तथ्य की गहन शोध के स्थान पर यही कहकर टालने का प्रयास किया है कि यतिवृषभाचार्य के गुरु मंक्षु और नागहस्ती ये दोनों प्राचार्य श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य मंक्षु और नागहस्ति से भिन्न हैं। जयधवलाकार की निम्नलिखित गाथाएँ महत्त्वपूर्ण हैं : गुणहरक्यण विणिग्गय, गाहाणत्थोऽवहारिनो सव्वो। जेणज्जमखुणा सो, सणागहत्थी वरं देऊ ।।७॥ जो अज्ज मंखु सीसो, अंतेवासी वि णाग हत्थिस्स । सो वित्ति सुत्तकत्ता, जइवसहो मे वरं देऊ ।।८।। ये दो गाथाएं शोधार्थी विद्वानों को शोध के लिये प्रेरणा देने वाली हैं । जयधवला और श्रु तावतार में प्राचार्य गुणधर को कषाय-पाहुड़ का कर्ता माना ' प्रार्य मंक्षु के समय के लिए देखिये जैनधर्म का मौलिक इतिहास भाग २, पृष्ठ ५३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy