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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती श्राचार्य ]
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के ४७० वर्ष पश्चात् विक्रम संवत् प्रचलित हुआ - इस दृष्टि से इन अंकों की जोड़तोड़ की कल्पना सही (ठीक) तो बैठती है पर इस प्रकार की जोड़-तोड़ का श्राधार गाथा में कहीं संकेतित नहीं है ।
'उपदेशमाला' पर सिद्धर्षि द्वारा रचित टीका, एक प्राचीन कृति है विक्रम संवत् १२३८ में रत्नप्रभ सूरि ने इस पर दोघट्टीवृत्ति की रचना की । इस पर तीसरी टीका रामविजयजी द्वारा निर्मित, उपलब्ध है।
दोघी वृत्ति में धर्मदास गरिण महत्तर को स्वयं भगवान् महावीर का हस्तदीक्षित शिष्य बताया गया है, जो किसी भी दृष्टि से मान्य नहीं हो सकता । हो सकता है कि मुमुक्षुत्रों के लिये परमोपयोगी उनकी कृति उपदेशमाला के महत्व को प्रकट करने की दृष्टि से प्रथवा पूर्व जन्म में भगवान् महावीर के पास दीक्षित होने की कल्पना के आधार पर टीकाकार ने ऐसा लिखा हो ।
उपदेशमाला में संविग्न- परम्परा के पक्ष पर प्रकाश डाला गया है । विनय रत्न, महामुनि स्थूलभद्र, सिंहगुहावासी मुनि, श्रार्य मंगू, श्रार्य वज्र और देवद्वर्गारिण क्षमाश्रमरण के तत्वावधान में वल्लभी में हुई आगम वाचना अथवा आगम लेखन के समय विद्यमान कालकाचार्य आदि वीर निर्वारण की तीसरी शताब्दी से दसवींग्यारहवीं शताब्दी के बीच हुए प्राचार्यों के सम्बन्ध में अनेक बातें कही गई हैं, इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि उपदेशमाला के रचनाकार धर्मदासगरिण महत्तर युगप्रधानाचार्य हारिल्ल सूरि के समकालीन राजर्षि हों ।
इनका कोई प्रामाणिक जीवन परिचय नहीं मिलता । दोघट्टीवृत्ति जैसे उत्तरवर्ती जैन वांग्मय में यह बताया गया है कि वे अपने गृहस्थ जीवन में विजयपूर... के विजयसेन नामक राजा थे । श्रजया और विजया नाम की इनकी दो रानियां थीं। रानी विजया की कुक्षि से एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम रणसिंह रखा गया । सौतिया डाह के वशीभूत हो प्रजया नामक रानी ने षड्यन्त्र रच कर बालक राजकुमार रणसिंह का अपहरण करवा दिया। राजा विजयसेन और रानी विजया के हृदय को इस घटना से गहरा आघात लगा । उन दोनों को संसार से विरक्ति हो गई और उन दोनों ने पंच महाव्रतों की भागवती दीक्षा ग्रहण करली । उन दोनों के साथ विजयारानी का सहोदर सुजय भी श्रमणधर्म में दीक्षित हो गया । राजा विजयसेन धर्मदासगणि के नाम से विख्यात हुए ।
उधर राजकुमार रणसिंह का लालन-पालन एक कृषक के घर में हुआ । रणसिंह ने युवावस्था में प्रवेश करते ही अपने पौरुष से विजयपुर के राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया । कालान्तर में राजा रणसिंह धर्मविमुख हो प्रजा पर अन्याय करने लगा ।
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