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हारिल्ल सरि के समकालीन प्रभावक ग्रन्थकार
धर्मदासगरिण महत्तर
धर्मदासगणि महत्तर की 'उपदेशमाला' नाम की एक ही कृति उपलब्ध होती है । इसके अतिरिक्त उनकी कोई रचना उपलब्ध नहीं होती।. उनकी यह एक ही कृति मुमुक्षु साधकों के लिये परम हितकारिणी है।
उपदेशमाला में ५४४ गाथाएं हैं, जिनमें अन्तर्मन पर प्राध्यात्मिकता की अमिट छाप अंकित कर देने वाले हृदयग्राही उपदेश प्राध्यात्मिक साधना को ही सारभूत सिद्ध करने वाली अकाट्य युक्तियों और अनेक ऐतिहासिक दृष्टान्त अति सुन्दर प्रभावशाली शैली में प्रतिपादित किये गये हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण यह ग्रन्थ अपने प्रणेता धर्मदासगणि महत्तर को अक्षय कीर्ति प्रदान करता हुआ अपने रचनाकाल से लेकर अद्यावधि पर्यन्त बड़ा लोकप्रिय रहा है ।
धर्मदासगणि ने उपदेशमाला की ५४०वीं गाथा में अपना नाम धर्मदास गणि 'धम्मदासगणिरण' इस पद से स्पष्ट रूपेण बताया है। इस गाथा से पूर्व की गाथा संख्या ५३७ में एक निगूढ़ शैली में अपने नाम का संकेत किया है, जो इस प्रकार है :
घंत-मणि-दाम-ससि-गय-णिहि, पयपढमक्खराभिहाणेण । उवएसमालपगरणमिणमो, रइयं हिमट्ठाए ॥५३७।।
___ गाथा के प्रथम चरण से 'धर्मदासगणि' यह नाम ग्रन्थकार का प्रकट होता है । कतिपय विद्वानों का अभिमत है कि इस गाथा के प्रथम चरण में धर्मदास गरिण ने ग्रन्थ रचना के काल का निर्देश भी किया है। इस सम्बन्ध में जोड़-तोड़ बैठाने का पूरा प्रयास किया गया किन्तु वह प्रचलित संवतों की संख्या और परस्पर एकदूसरे के अन्तराल के जोड़ने पर समुचित और मन को समाधानकारी नहीं प्रतीत होता। घंत-१, मरिण-७, दाम-५, ससि १, गय-८ और रिणहि-६, इस प्रथम चरण से अनुमानित की जाने वाली ६ संख्याओं में से धंत (ध्वांत-अन्धकार-१, ससि -१, और दाम-- ५ को "अंकानां वामतो गति" इस नियम से विक्रम संवत् ५११ गौर ससि - १, गय-८ और णिहि - ६ इन अंकों से वीर नि. सं. १८१ निकलता है। इससे यह फलित होता है कि विक्रम संवत् ५११ तदनुसार वीर नि. सं. ९८१ में धर्मदासगरिण महत्तर ने 'उपदेश माला' की रचना की । वीर निर्वाण
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