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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ३
काल की जम्बूद्वीपस्थ हमारे भारत क्षेत्र की चौबीसी के ८वें तीर्थंकर प्रभु चन्द्रप्रभ की मूर्ति प्रकट हुई । वह गाथा इस प्रकार है. :
णामें समंतभद्दु वि मुणिदु, अइरिणम्मलु णं पुण्ण महिचंदु । जिउरज्जिउ राया रुद्द कोड़ि, जिणथुत्ति-मिस्सि सिवपिडि फोडि ।।
इस विस्मयकारिणी चमत्कारपूर्ण घटना से कांचीश और जन-जन के मन पर जैन धर्म के अचिन्त्य प्रभाव की अमिट छाप अंकित हो गई।"
इससे अनुमान किया जाता है कि कांची का पल्लव राजवंश ईसा की प्रारम्भिक शताब्दी से लेकर ईसा की सातवीं शताब्दी के प्रथम चरण में शैव महासन्त अप्पर द्वारा जैन से शैव धर्मावलम्बी बनाये गये कांचिपति पल्लवराज महेन्द्र वर्मन के शासन के मध्यवर्ती काल तक संभवतः इसी अद्भुत चमत्कारपूर्ण घटना के प्रभाव के परिणामस्वरूप शताब्दियों तक प्रायः जैन धर्मावलम्बी ही बना रहा।
प्राचार्य समन्तभद्र वस्तुतः बहुमुखी प्रतिभाओं के अप्रतिम धनी थे। उनकी विविध विषयों पर एकछत्र आधिपत्य रखने वाली अद्भुत कृतियों के ग्रन्थ समूह को देखकर प्रत्येक सुविज्ञ समीक्षक के समक्ष यह समस्या उपस्थित हो जाती है कि उन्हें महाकवि कहा जाय, नितान्त अध्यात्मनिष्ठ श्रमणोत्तम कहा जाय, उन्हें महान् ग्रन्थकार की उपाधि से विभूषित किया जाय, महान् दार्शनिक कहा जाय अथवा सर्वजयी वादिराज के विशिष्ट संबोधन से अभिहित किया जाय, क्योंकि इन सभी प्रकार की उच्च कोटि की विशेषताओं से उनका जीवन प्रोत-प्रोत था। अपने समय के यशस्वी कवि वादीभसिंह के इन शब्दों में
"सरस्वती-स्वैर-विहारभूमयः,
समन्तभद्र प्रमुखा मुनीश्वराः । जयन्ति वाग्वज्र-निपात-पारितप्रतीप राद्धान्त महीध्रकोटयः ।।"
(गद्यचिन्तामणि) आचार्य समन्तभद्र की अजेय महावादी के रूप में विशिष्ट ख्याति भूमण्डल में प्रसृत रही प्रतीत होती है ।
प्राचार्य समन्तभद्र के सर्वतोमुखी प्रतिभाशाली असाधारण व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाला एक श्लोक दिल्ली के पंचायती मन्दिर में उपलब्ध पुष्टे (पुलिन्दे) में रखी स्वयंभूस्तोत्र की प्राचीन प्रति के अन्त में उल्लिखित है, जो इस प्रकार है :
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