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________________ वीर सम्बत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य . ] , [ ४३७ प्राचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं, __ दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मांत्रिकस्तान्त्रिकोऽहम् । राजन्नस्यां जलधिवलया-मेखलायामिलायां, प्राज्ञासिद्धिः किमिति बहुना सिद्ध सारस्वतोऽहम् ।। अर्थात् हे राजन् ! मैं प्राचार्य तो हूं ही, कवि भी हूं, वादी भी हूं और पण्डित भी हूं। मैं ज्योतिषी, चिकित्सक, मान्त्रिक और तान्त्रिक भी हूं । कटि पर करधनी धारण को हुई नवोढ़ा के समान चारों ओर समुद्र से परिवेष्टित इस वसुन्धरा पर मैं सिद्ध-सारस्वत अर्थात् सरस्वती पुत्र हं। इस धरित्री पर मैं जिस प्रकार का आदेश देता हूं, अर्थात् जैसा मैं चाहता हूं, वही होता है। इस श्लोक का सारांश यह है कि प्राचार्य समन्तभद्र केवल वादी, कवि अथवा सकल विद्यानिधान ही नहीं अपितु सब कुछ थे। शक सं० १०५० में उकित, श्रवणबेल्गोल स्थित पार्श्वनाथ बस्ति के एक स्तम्भ लेख में प्राचार्य समन्तभद्र की यशोगाथाओं का गान करते हुए बताया गया है कि इस आर्यधरा के किन-किन सुदूरस्थ प्रदेशों में जिन शासन का वर्चस्व स्थापित करने के लिये अप्रतिहत विहार कर विपक्षियों को शास्त्रार्थ में पराजित करते हुए जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया । उस स्तम्भलेख में उम्र कित श्लोक इस प्रकार है पूर्व-पाटलिपुत्र मध्य-नगरे भेरी मया ताड़िता, पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क-विषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहु-भटं विद्योत्कटं संकटं, वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूल-विक्रीडितम् ।। ७ ॥ प्रवटु-तटमटतिझटिति स्फुट-पट-वाचाटधूर्जटेरपि जिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति तव सदसि भूप! कास्थान्येषाम् ' ।।८।। प्राचार्य समन्तभद्र ने भस्मक रोग से ग्रस्त होने के अनन्तर विभिन्न प्रदेशों के किन-किन नगरों में और किस-किस धर्म के साधु के रूप में भ्रमण करते हुए निवास किया, इस सम्बन्ध में निम्नलिखित श्लोक में विवरण दिया गया है :-- कांच्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्लाबुशे पाण्डुपिण्डः, पुण्डोण्डु शाक्यभिक्षुः दशपुर नगरे मिष्टभोजी परिवाट । वाराणस्यामभूवं शशधरघवल: पाण्डुरोगस्तपस्वी, राजन् ! यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैन निर्ग्रन्थवादी ।। प्राचार्य समन्तभद्र की यशोगाथा गाने वाले इन श्लोकों को पढ़ने से सहसा इस प्रकार का आभास होता है मानों स्वयं उन्होंने ही गर्वोक्तियों से भरे इन श्लोकों १. जैन शिला लेख संग्रह, भाग १ (माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला समिति) पृ० १०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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