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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ४३५ किसी जन्म-जन्मान्तर में अर्जित कर्म के दुर्विपाक से वे भस्मक रोग द्वारा प्राक्रान्त हो गये । मधुकरी में मिले रूक्ष एवं मित भोजन से उनकी भस्मक व्याधि उत्तरोत्तर बढ़ती और भयंकर रूप धारण करती ही गई । इस असाध्य भीषरण व्याधि से उनके शरीर में पीड़ा प्रचण्ड रूप धारण कर उनके शरीर को, रुधिर, मज्जा, चर्म और अस्थियों तक को जलाने लगी। इस दुस्सह्य- दारुण व्याधि से प्रपीड़ित हो समन्तभद्र ने अपने गुरु से प्रार्थना की कि वे उन्हें अनशनपूर्वक समाधि मररण के स्वेच्छा वरण की आज्ञा प्रदान करें । ज्ञाननिधि तपोधन गुरुदेव ने कुछ क्षण ध्यानमग्न रहने के पश्चात् कहा - 'वत्स ! तुम जिनशासन की महती प्रभावना करोगे । अभी तुम्हारी पर्याप्त आयु अवशिष्ट है । इस भयावहा भीषण भस्मक व्याधि की अग्नि के शमन के लिये विपुल मात्रा में गरिष्ठ भोजन की प्रावश्यकता रहती है । अतः तुम पंच महाव्रत स्वरूप संयम का कुछ समय के लिये परित्याग कर यथेष्ट गरिष्ठ भोजन करो। कुछ समय पश्चात् इस भस्मक व्याधि के नष्ट हो जाने पर तुम प्रायश्चित करके पुनः संयम ग्रहरण कर स्व-पर-कल्याण में निरत हो जाना । संयम व विशुद्ध श्रमणाचार समन्तभद्र को प्राणाधिक प्रिय था उसका त्याग करने में उन्हें मर्मान्तिक पीड़ा का अनुभव हो रहा था किन्तु अपने विशिष्ट ज्ञानी गुरुवर की आज्ञा को उन्होंने अनिच्छा होते हुए भी शिरोधार्य करते हुए मुनिवेष का परित्याग किया । अपने शरीर पर भस्म रमा कर स्थान-स्थान पर घूमते हुए वे कांचीराज के राजप्रासाद में पहुंचे । भस्मविभूषित समन्तभद्र को देखते ही कांचिपति के मन में हठात् यह विचार उत्पन्न हुआ कि कहीं. साक्षात् शिव ही तो उस पर कृपा कर उसके यहां नहीं आ गये हैं। कांचीश ने उठ कर उनका अभिवादन करते हुए उनको प्ररणाम किया। जब उसे विदित हुआ कि वे महात्मा हैं और प्रभु उपासना ही उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य है तो कांच्यधीश ने उन्हें राजप्रासाद के शिवमन्दिर में रहने और शंकर की उपासना करते रहने की प्रार्थना की । उस समय के परम समृद्ध कांची राज्य के राजकीय मन्दिर में प्रतिदिन शिव को भोग के समय अर्पण की जाती रही अति गरिष्ठ उत्तमोत्तम भोज्य सामग्री के नित्य नियमित भोजन से समन्तभद्र की भस्मक व्याधि कतिपय मासों में ही मूलतः नष्ट हो गई । एक दिन कांचीश द्वारा शिव की स्तुति करने का आग्रह किये जाने पर समन्तभद्र ने "स्वयंभू स्तोत्र" की रचना कर शिवपिण्डी के समक्ष खड़े हो जिनेश्वर की स्तुति करना प्रारम्भ किया । चन्दप्पह चरिउ की प्रशस्ति की निम्नलिखित गाथा के अनुसार समन्तभद्र द्वारा किये जा रहे स्तुति पाठ में जहां प्रभु को प्रणाम करने का प्रसंग आया, वहीं तत्काल शिवपिण्डी के अन्दर से प्रवर्तमान अवसर्पिणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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