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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
विक्रम की दूसरी शताब्दी का अन्तिम चरण माना है। इससे भी इस अनुमान की पुष्टि होती है कि एक ही काल में हुए ये नगण्य नामभेद के प्राचार्य बहुत सम्भव है एक ही हों। जहां तक समन्तभद्र की रचनाओं का प्रश्न है 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' को छोड़ शेष रचनाओं में दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यताओं के विभेद को प्रकट करने वाली कोई महत्वपूर्ण बात उल्लिखित नहीं है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार को डा० हीरालाल ने सामन्तभद्र की रचना न मानकर इसे अन्य कर्तृक सिद्ध किया है। इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर इस प्रकार का अनुमान करना अनौचित्य की परिधि में नहीं आता कि दोनों परम्पराओं द्वारा भिन्न-भिन्न विद्वान् के रूप में माने गये सामन्त भद्र अथवा समन्तभद्र भिन्न व्यक्ति न होकर एक ही आचार्य हों । अस्तु यह कोई ऐसा विषय नहीं जिस पर अन्तिम रूपेण साधिकारिक शब्दों में कुछ कहा जा सके। यदि ऐसा कहा भी जाय तो यह बहुत सम्भव है कि जिनके.अन्तर्मन में पूर्वाभिनिवेश घर किया हुआ है वे लोग इसे न भी मानें । अस्तु, इस विषय में और अधिक अग्रेतर शोध की परम आवश्यकता है, इसमें तो किसी का मतभेद नहीं होगा।
दिगम्बर परम्परा के विद्वान् इतिहासविदों द्वारा आचार्य समन्तभद्र का जो जीवन परिचय दिया गया है, वह सार रूप में इस प्रकार है :
अत्युच्च कोटि के वाग्मी, कवि और तार्किक प्राचार्य समन्तभद्र दक्षिणापथ के फरिणमण्डलान्तर्गत उरगपुर के एक राजा के क्षत्रिय राजकुमार थे। उनका जन्मनाम था शान्ति वर्मा। उन्हें संसार से विरक्ति हो गई और उन्होंने राज्य, ऐश्वर्य
और विपुल मात्रा में उपलब्ध ऐहिक भोगोपभोग आदि को विषवत् त्याग कर जैन निर्ग्रन्थ श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। उन्होंने कब और किसके पास श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की, किन के पास विद्याध्ययन कर व्याकरण, न्याय, काव्य आदि अनेक विद्याओं तथा आगमों के तलस्पर्शी ज्ञान में निष्णातता प्राप्त की, इन सब बातों का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता।
___आचारांग अथवा मूलाचार में एक ज्ञान-क्रियानिष्ठ श्रमणोत्तम के लिये जिस प्रकार के विशुद्ध श्रमणाचार का विधान किया गया है, उस विशुद्ध श्रमणाचार की परिपालना में वे सदा प्रतिपल, प्रतिक्षण सतत जागरूक रहते थे। जिनेन्द्र प्रभु के विश्वकल्याणकारी सन्देश को आर्यधरा के विस्तीर्ण भूमण्डल पर विभिन्न क्षेत्रों में बसे हुए जन-जन तक अप्रतिहत विहार के माध्यम से पहुंचाने में उनका शरीर सक्षम रहे, उनका शरीर ज्ञान, क्रिया, की आराधना और संयम साधना का समीचीन रूप से निर्वहन करने योग्य रहे, केवल इसी स्व तथा पर के कल्याण की भावना से वे आहार-पानीय आदि ग्रहण करते थे । रसास्वादन रसद्धि अथवा शरीर पर मोह की भावना से उन्होंने कभी मधुकरी नहीं की । ऐसे श्रमणश्रेष्ठ थे आचार्य समन्तभद्र।
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