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. [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ देवडि खमासमण जा, परम्परं भावप्रो वियाणेमि ।
सिढिलायरे ठविया, दव्वेण परम्परा बहुहा ।' नियुक्ति, चूणि, भाष्य प्रादि प्रागम-व्याख्या-ग्रन्थों के माध्यम से शिथिलाचार के साथ पनपी हुई अनेक प्रकार की विकृतियां कालांतर में लोकप्रिय एवं बहुजनसम्मत भी बन गई पर उन विकृतियों का विशुद्ध श्रमरणाचार का पालन एवं आगम में प्रतिपादित धर्म के विशुद्ध स्वरूप पर श्रद्धा एवं निष्ठा रखने वाले श्रमणोत्तमों ने समय-समय पर विरोध प्रकट किया, जिसका कि विवरण उपरि'लखित उद्धरणों में विस्तारपूर्वक दिया जा चुका है।
' प्रस्तुत ग्रन्थ की पृष्ठ संख्या ११ तथा ५६ भी देखें ।।
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