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वैज्ञानिक परीक्षणों और साहसिक अभियानों के वर्तमान युग में मानव समाज को आत्मसंयम, आत्मानुशासन एवं अहिंसा की ओर मोड़ देने की आत्यन्तिकी आवश्यकता को देखते हुए आज इस समस्या के शीघ्र समाधान का और इसके प्रचार प्रसार का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है। आत्मानुशासन और अहिंसा इन दोनों में अन्योन्याश्रय (अन्योन्याभाव) सम्बन्ध होने के कारण दोनों का एक साथ होना अनिवार्यरूपेण परमावश्यक है। भारत में स्वराज्य संग्राम का शुभारम्भ करते हुये गांधीजी ने घोषणा की थी कि स्वराज्य का अर्थ है-आत्म संयम-आत्मानुशासन अर्थात्-अपनी इच्छाओं को, अपने आपको अपने वश में करना। श्रीमद्भगवतद्गीता (११-६१) में भी यही कहा गया है -
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता । जिसकी इन्द्रियां-इच्छाएं अथवा आकांक्षाएं उसके स्वयं के वश में हैं, केवल वही एक आत्मसंयमी व्यक्ति अपने मन एवं मस्तिष्क में सत्य को धारण कर सकता है और उसी सत्य के अनुरूप आचरण कर सकता है आइन्स्टीन भी यही कहते हैं - "मानव का सच्चा प्राथमिक मूल्यांकन उसके उन मानोभावों के अनुपात के मापदण्ड से ही निर्धारित किया जा सकता है कि उसने स्वयं अपने आप से, अपनी इच्छाओं से किस अनुपात में मुक्ति प्राप्त कर ली है। भ. महावीर का संदेश इस प्रकार है (उत्तराध्ययन १/१५, समणसुत्तं १४७) :
अप्पा चेव दमेयव्यो, अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा-दन्तो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य || एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ कंचणं । अहिंसा संयम चेव, एतावं ते वियाणिया ॥
व्यक्ति के सच्चे ज्ञान का महत्व इसी बात पर निर्भर करता है कि उसने आत्मदमन कर मनसा, वाचा एवं कर्मणा हिंसा से निवृत्ति प्राप्त करली है। अहिंसा वस्तुतः बुद्धि की पवित्रता और मस्तिष्क की महानता की आधार शिला है।
विनोबाजी कहते हैं - "मैं कबूल करता हूं कि मुझ पर गीता का गहरा असर है। उस गीता को छोड़कर महावीर से बढ़कर किसी का असर मेरे चित्त पर नहीं है । ....... गीता के बाद कहा, लेकिन जब देखता हूं तो मुझे दोनों में फरक ही नहीं दीखता है।'
विनोबा भावे को गीता और भ. महावीर की शिक्षाओं में कोई अन्तर प्रतीत नहीं हुआ।
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