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यह है कि हृदयद्रावी-परमोत्पीड़क भीषण संहारकारी संकट की घड़ियों में भी कोई एक न एक ऐसे महान् संत, महान् विभूति अथवा उन महासतों की परम्परा का कोई न कोई ऐसा समर्थ उत्तराधिकारी महापुरुष आर्यधरा पर अवश्य विद्यमान रहा है, जिसने भ. महावीर एवं भ. बुद्ध द्वारा उद्घोषित-आचरित एवं उपदिष्ट विश्वबन्धुत्व और अहिंसा के सिद्धान्त की कभी न बुझने वाली महान् अथवा महत्तम दिव्य अमर ज्योति को जीवित-प्रज्वलित एवं प्रदीप्त रखकर सर्वनाश की कगार पर खड़ी मानवता को घोर रसातल में जाने से उबारा है। इस सन्दर्भ में महान् इतिहासकार आरनोल्ड तोयन्बी के (श्री रामकृष्ण परमहंस की पुस्तक की प्रस्तावना के) निम्नलिखित शब्द सहसा मेरे स्मृति पटल पर उभर आते हैं -
"मानव इतिहास के सर्वाधिक संहारकारी इस आणविक युग के घोर संकटपूर्ण क्षणों में मानवता के लिए सर्वनाश से मुक्ति पाने का एक मात्र उपाय वस्तुतः भारतीय जीवन पद्धति को अपनाना ही है। अणुशक्ति के युग में समग्र मानव जाति के पास भारतीय जीवन पद्वति को अपनाने के लिए सह अस्तित्व का लक्ष्य विकल्प के रूप में है। पर सह अस्तित्व का यह विकल्प अपने आप में अधिक शक्तिशाली अथवा अधिक सम्मानास्पद नहीं हो सकता। आज मानव जाति का अस्तित्व संकट में है। यह सब कुछ होते हुए भी सर्वाधिक सशक्त और अधिक सम्मानास्पद सह अस्तित्व का लक्ष्य भारतीय जीवन पद्धति को मन वचन व कर्म से अपनाने के लिए माध्यम होने के फलस्वरूप सहायक साधन हो सकता है। मूल साधन तो यह है कि भारतीय जीवन पद्धति की शिक्षा ही वास्तविक सच्ची शिक्षा है क्योंकि भारतीय जीवन पद्धति की शिक्षा का उद्गम आध्यात्मिक सच्चाई के सच्चे सही दृष्टिकोण से हुआ है।
राष्ट्र संघ का घोषणा-पत्र इन शब्दों से प्रारम्भ होता है - "क्योंकि युद्धों का प्रादुर्भाव अथवा प्रारम्भ सर्वप्रथम मानव मस्तिष्क में होता है, इसलिए मानव मस्तिष्क में यह बात भी रहती है कि शान्ति की सुरक्षा के उपायों का भी निर्माण करना चाहिए। (यह हमें धम्मपद के प्रारम्भिक पद्यों की स्मृति दिलाता है।)
सबसे बड़ा और सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है -“यह सब कुछ कैसे किया जाय ? इस लक्ष्य को प्राप्त कैसे किया जाय ?" यद्यपि यह प्रश्न निखिल विश्व से, समष्टि से सम्बन्धित सर्वाधिक आवश्यक ज्वलन्त प्रश्न है अतः इसे सर्वोपरि प्राथमिकता दी जानी चाहिये थी तथापि इस दिशा में अद्यावधि अतीव नगण्य प्रयास किये गये हैं। नित नये
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