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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ आदि साहित्य का एवं उनके माध्यम से प्रचलित की गई बाह्याडम्बरपूर्ण मान्यताओं का विरोध शताब्दियों तक किया जाता रहा, इसके प्रमाण खोजने पर उत्तरकालीन साहित्य में भी उपलब्ध हो जाते हैं।
खरतरगच्छीय प्राचार्य जिनपतिसूरि, जिनका कि प्राचार्यकाल वि० सं० १२२३ से १२७७ तक का माना गया है, एक समय विशाल संघ के साथ तीर्थयात्रा करने के लिये प्रस्थित हुए। अनेक स्थानों में भ्रमण करता हुआ संघ जब आगे की ओर बढ़ रहा था, उस समय एक स्थान पर पूर्णिमा गच्छ के आचार्य श्री प्रकलंकदेवसूरि उस संघ में प्राचार्य जिनपतिसूरि से मिलने के लिए उपस्थित हुए।
वार्तालाप के प्रसंग में उन्होंने जिनपतिसूरि से प्रश्न किया :
. "भवत्विदमेव, परं संघेन सह यात्रा क्वापि सिद्धांते साधूनां विधेयतया भरिणतास्ति, यदेवं यूयं प्रस्थिता ?"............ प्राचार्यमिश्रा! वतिना सता संघेन सह तीर्थयात्रायां न गन्तव्यमित्यादीनि निषेध वाक्यानि सिद्धांते कि वा वयं दर्शयामः, किं वा यूयं विधायकाक्षराणि दर्शयथ।"
_ विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में, गुजरात में तीर्थयात्रा का विरोध करने वाले, तीर्थयात्रा को प्रशास्त्रीय सिद्ध करने वाले केवल पूर्णिमा गच्छ के प्राचार्य प्रकलंकदेवसूरि ही अकेले नहीं थे, वस्तुतः तीर्थयात्रा को प्रशास्त्रीय मानने वाले लोग गुजरात में उस समय पर्याप्त संख्या में थे, इस बात का संकेत जिनपतिसूरि के निम्नलिखित उत्तर से मिलता है।
जिनपतिपूरि ने अकलंकसूरि के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा था
.. ."तथा संघेन गाढ़तरं वयमयथिता, यदुत प्रभो अनेक चार्वाक लोकसंकुलायां गुर्जरत्रायां तीर्थानि सन्ति, तानि च ज्योत्कर्तुं चलितानस्मान् दृष्ट्वा कश्चिच्चार्वाकस्तीर्थ-यात्रानिषेधाय प्रमाणयिष्यति, तदा सिद्धांतरहस्यापरिज्ञानाद्वंदेशिकत्वाच्चास्माभिर्न किमप्युत्तरं दातुं शक्यते, अतः मा जिनशासने लाधवमदिति यूयं यथातथास्माभिः सह तीर्थवन्दनार्थमागच्छत इत्यादि संघाभ्यर्थनया वयमागताः .......... ""
अपने विरोधियों के लिये प्रायः चार्वाक शब्द का प्रयोग साधारणतया कर दिया जाता रहा है। इससे यही प्रकट होता है कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में भी जैन धर्म के प्रागम प्रतिपादित प्राध्यात्मपरक मूल विशुद्ध स्वरूप के प्रति प्रास्था रखने वाले प्राचार्य, श्रमण एवं श्रमरणोपासक पर्याप्त संख्या में विद्यमान थे।
' खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावली, पृष्ठ ३५
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