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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ४२६ लिए वस्तुतः भावधर्म नामक वह दूसरा धर्म ही शुद्ध धर्म है, जो कि प्रतिश्रोतगामी तीर्थंकरों द्वारा सेवित है। क्योंकि उससे युक्त जीव सबीज-बोधिबीज-सम्यक्त्व सहित होते हैं, अतः वह दूसरा भावधर्म-आध्यात्मिक धर्म ही वस्तुतः शुद्ध धर्म हैप्रशस्त धर्म है।
चैत्यवासियों के उत्कर्षकाल में धर्म के नाम पर बढ़ते हुए बाह्याडम्बर, चारों ओर प्रसृत होती हुई द्रव्यपूजा, और लोकप्रिय बनते जा रहे द्रव्यधर्म के विरुद्ध इन पंक्तियों में प्रबल विरोध प्रकट करते हुए मूल विशुद्ध जैन धर्म का, तीर्थंकरों द्वारा प्राचरित विशुद्ध श्रमरणाचार और श्रमणोपासक परम्परा के वास्तविक स्वरूप का कैसा नितरां अतीव सहज-सुन्दर चित्रण किया गया है। यहां भौतिकता एवं प्राडम्बर के लिए कोई किंचित्मात्र भी स्थान नहीं, सब कुछ आध्यात्मिक ही आध्यात्मिक है। आगमों में जैन धर्म के जिस चिरन्तन शाश्वत सत्य स्वरूप का भव्य चित्र प्रस्तुत किया गया है, उसी के अनुरूप इन पंक्तियों में साररूप में दिग्दर्शन कराया गया है।
प्राचार्य हारिलसूरि के युगप्रधानाचार्यकाल के उत्तरार्द्ध में ज्यों-ज्यों चैत्यवासियों का प्रचार, प्रसार, प्रभाव और प्राबल्य बढ़ता गया और उनके द्वारा धर्म के नाम पर गढ़े गये बाह्याडम्बरपूर्ण नित्य नवीन विधि-विधान-तीर्थयात्रा, जिनमन्दिर निर्माण, जिनमन्दिरों में मूर्तियों की प्रतिष्ठा, धूमधाम एवं आडम्बरपूर्ण ठाटबाट के साथ बलिनेवैद्यनिवेदन, पूजन, अर्चन, प्रभावना, उद्यापन प्रादि लोकप्रिय होते गये त्यों-त्यों जनसंघ के अन्यान्य विभिन्न गण, गच्छ एवं आम्नाय भी उन आकर्षक वाह्याडम्बरों को अपनी-अपनी कल्पना शक्ति के अनुरूप भाष्य, वृत्ति आदि के निर्माण के माध्यम से नया रूप देकर अपनाने लगे।
इस प्रकार उन प्राडम्बरपूर्ण आयोजनों को अधिकाधिक आकर्षक बनाने की प्रायः समस्त जनसंघ में होड़-सी लग गई। इस सब का परिणाम यह हुआ कि धर्म का वास्तविक पुरातन स्वरूप धूमिल हो गया, नूतन मान्यताओं एवं परम्परात्रों के प्रवल प्रवाह में धर्म का मूल स्वरूप, धर्म की प्राध्यात्मपरक मूल मान्यताएँ तिरोहित सी प्रतीत होने लगीं । आध्यात्मिकता के स्थान पर प्रभावना, प्रतिष्ठा और तीर्थयात्रा में ही धर्म की इतिश्री रह गई।
उस प्रकार के संक्रांतिकाल में धर्म के प्रागमानुसारी मूल की धारा पर्याप्तरूपेण क्षीण तो अवश्य हई किन्तु अपनी मंथर गति से प्रवाहित होती रही, इसके प्रमाण प्राचीन जैन वांग्मय में उपलब्ध होते हैं।
____ भाष्य-चूणि-वृत्ति साहित्य के उत्तरोत्तर अधिकाधिक लोकप्रिय हो जाने के उपरांत भी धर्म के मूल प्राध्यात्मिक स्वरूप के प्रति आस्थावान् एवं विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले श्रमणवर्ग द्वारा शिथिलाचार का, भाष्य-चूरिण-वृत्ति
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