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________________ ४२८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ रखने वाला साधु-साध्वी श्रावक-श्राविकावर्ग उत्तरोत्तर क्षीण होते-होते नितान्त नगण्य संख्या में अवशिष्ट रह गया था, उस समय वि. सं. १०८० में महाराज दुर्लभराज की राज्यसभा में जिनेश्वरसूरि ने आगमेतर साहित्य को जैनधर्मावलम्बियों के लिए अमान्य घोषित करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग तीर्थंकर प्रभु की वाणी को गणधरों ने आगमों के रूप में ग्रथित किया है और उन आगमों से चतुर्दश पूर्वधरों ने शिष्यों अथवा भव्यजनों के हित के लिये सार रूप में अर्थ निर्यूढ कर जिन आगमों का प्रणयन किया है, केवल वे श्रागम ही जैनधर्माव - लम्बियों के लिए प्रामाणिक रूप से मान्य हैं । आगमों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थ सर्वथा प्रामाणिक नहीं । २. (चैत्यवासियों के चहुंमुखी बढ़ते हुए प्रभाव के कारण जिस समय यत्रतत्र जिनगृहों-जिनमन्दिरों के निर्माण का सर्वव्यापी प्रचार-प्रसार बढ़ने लगा, उस समय भी उसके विरोध में आगमों को सर्वोपरि प्रामाणिक मानने वाले आत्मार्थियों ने स्पष्ट एवं ठोस शब्दों में अपना अभिमत जैनसंघ के समक्ष रखा :--- गड्डरि-पवाह जो, पर नयरं दीसए बहुजणेहिं । जिरणहि कारवाई, सुत्तविरुद्ध असुद्ध य ॥ ६ ॥ सो होइ दव्वधम्मो, अपहारगो नेव निव्वुई जरणइ । सुद्ध धम्मो बीओ, महिश्रो पडिसोयगामीहिं ॥ ७।। पढ़म गुरगठाणे जे जीवा, चिट्ठति तेसि सो पढ़मो । होइ इह दव्वधम्मो, अविसुद्धो बीयनायेणं ॥ १० ॥ विरइ गुणठाणासु, जे य ठिया तेसि भावप्रो बीओो । ते जुया ते जीवा, हुति सबीया असुद्ध ।। ११।। ' अर्थात् - आज जो भेडचाल के समान प्रत्येक नगर में बहुत से लोगों द्वारा जिनगृहों (जिनमन्दिरों) के निर्माण करवाने आदि का कार्य किया जा रहा है, वह सूत्रविरुद्ध एवं शुद्ध है । वस्तुतः वह तो केवल अप्रधान द्रव्यधर्म है, जो निर्वृत्ति का जनक अर्थात् मोक्षदायक नहीं है । शुद्ध धर्म तो वस्तुतः इससे भिन्न दूसरा ही है, जो प्रतिश्रोतगामियों अर्थात् भौतिक- प्र - प्रवाह के प्रतिकूल प्राध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होने वाले महापुरुषों- तीर्थंकरों द्वारा प्रशंसित - पूजित अथवा प्राचरित है । प्रथम गुणस्थान ( मिथ्यादृष्टि गुणस्थान) में जो जीव संस्थित हैं, उनके लिये यह प्रथम द्रव्यधर्म है, जो बीज न्याय - भूल न्याय अथवा बोधि (सम्यक्त व ) बीज के अभाव की दृष्टि से विशुद्ध है । जो जीद अविरत ( चौथे) गुणस्थान आदि में स्थित हैं, उनके 1 Jain Education International १ (क) देखिये सन्दोह दोहावली । ( ख ) प्रस्तुत ग्रन्थ का पृष्ठ १७ भी देखें । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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