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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ उपयोगी सिद्ध हना है। यह तो एक निर्विवाद तथ्य है। किन्तु इसमें मूल आगमों से भिन्न अनेक मान्यताओं को कई स्थलों पर समाविष्ट कर लिया गया, जिनके कारण जैन धर्म का मूल स्वरूप ही परिवर्तित हुआ दृष्टिगोचर होता है ।
इस प्रकार हारिल सूरि के युगप्रधानाचार्य काल के उत्तरार्द्ध में मूल आगमों के स्थान पर जिस भाष्य-नियुक्ति-चूणि युग का प्रादुर्भाव हुआ, उसका प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। आगमों में प्रतिपादित मूल विधि-विधानों के सर्वोपरि सर्वमान्य स्थान को नियुक्तियों, चूर्णियों अथवा भाष्यों ने ले लिया और इसके परिणामस्वरूप धर्म के मूल स्वरूप में ही बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया।
इतना सब कुछ होते हुए भी आगमानुसारी विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले जैन धर्म के मूल स्वरूप के पक्षपाती श्रमरणों का वर्ग चाहे क्षीण रूप में ही सही पर अस्तित्व में अवश्य रहा ।
भाष्य-नियुक्ति-णि-वृत्ति आदि की प्राधान्यता के जिस युग का प्रारम्भ सर्व प्रथम प्राचार्य हारिल के युगप्रधानाचार्य काल के उत्तरार्द्ध में हुआ, उस युग का वर्चस्व उत्तरोत्तर उत्तरवर्ती काल में बढ़ता ही गया । अन्ततोगत्वा लगभग वीर निर्वाण की बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भकाल में ही श्रमणाचार, श्रावकाचार, एवं सभी प्रकार के धार्मिक कार्यकलापों से सम्बन्धित सभी विवादास्पद विषयों के निर्णय के लिए प्रागमों के स्थान पर भाष्यों, वृत्तियों तथा चूणियों को जैनसंघ का बहुत बड़ा भाग धार्मिक संविधान के रूप में मानने लगा। यह स्थिति शताब्दियों तक जैनसंघ में बहुजनसम्मत रही । मूल आगमों की भावना के प्रतिकूल नवनिर्मित भाष्य आदि पागम साहित्य में समाविष्ट किये जाते रहे अनेकानेक प्रावधानों के परिणामस्वरूप श्रमणाचार में व्यापक शैथिल्य के प्रसार के साथ-साथ धर्म के प्रागमिक मूल स्वरूप में भी अधिकांशतः परिवर्तन लाने का पूरा प्रयास किया गया।
इतना सब कुछ होते हए भी आगमानुसारी विशुद्ध श्रमणाचार के पक्षधर भवभीरू आत्मार्थी श्रमणों ने अल्पसंख्यक रह जाने पर भी धर्म को आडम्बरपूर्ण भौतिक परिधान पहनाने के लक्ष्य से नवनिर्मित सभी मूलागमप्रतिपन्थी प्रावधानों एवं शिथिलाचार का बड़े साहस के साथ डटकर विरोध किया। आगम प्रतिपादित विशुद्ध श्रमणाचार के पक्षपाती उन साहसी श्रमरणोत्तमों द्वारा उस प्रकार की संक्रामक स्थिति के विरुद्ध प्रकट किये गये विरोध के प्रसंग आज भी जैन वांग्मय में यत्रतत्र दृष्टिगो पर होते हैं । उस प्रकार के विरोधों का यहां उल्लेख करना प्रासंगिक एवं आवश्यक है, अत: उनमें से कतिपय प्रमुख विरोधों का उल्लेख यहां किया जा रहा है :
१. पहला सर्वाधिक महत्वपूर्ण उल्लेख खरतर गच्छ वृहद् गुर्वावलि का
है, जो इस प्रकार है :
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