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वीर सम्बत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ।
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श्रमणाचार में शनैः-शनै: शैथिल्य घर करने लगा। श्रमणों के बहसंख्यक वर्ग में उत्तरोत्तर अधिकाधिक व्यापक होते जा रहे शैथिल्य की पुष्टि हेतु आगमों की विशद् व्याख्या के नाम पर नव्य नूतन आगमिक व्याख्या ग्रन्थों का भाष्य आदि के रूप में प्रणयन प्रारम्भ किया गया। उन आगमिक ग्रन्थों में अपवाद मार्ग के नाम पर शैथिल्य के प्रतीक ऐसे-ऐसे नये-नये विधि-विधानों का समावेश किया गया, जिनका मूल आगमों में कहीं कोई उल्लेख की बात तो दूर, संकेत तक नहीं था।
हारिल सूरि के युगप्रधानाचार्य काल का अन्तिम चरण वस्तुतः चैत्यवासियों के उत्कर्ष का समय था। चैत्यवासियों ने जनमन को आकर्षित करने के लिये अध्यात्मप्रधान जैनधर्म के मूल स्वरूप में धर्म के नाम पर बाह्याडम्बरपूर्ण कर्मकाण्डों, नये-नये आकर्षक विधि-विधानों को प्रधानता देकर जैन धर्म के मूल स्वरूप को ही बदल दिया। यदि यह कहा जाय कि चैत्यवासियों ने जैन धर्म के मूल आध्यात्मिक स्वरूप को विकृत कर दिया तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अपने शिथिलाचार को समयोचित सिद्ध करने एवं अपनी अकर्मण्यता को लोकदृष्टि से छुपाने के अभिप्राय से चैत्यवासियों द्वारा आविष्कृत नये-नये आडम्बरपूर्ण विधिविधानों ने न केवल जनमत को ही अपनी ओर आकर्षित किया अपितु प्रागमानुसारी कठोर मूल श्रमणाचार की परिपालना से क़तराने वाले श्रमण-श्रमणीवर्ग को भी पर्याप्त रूप में प्रभावित किया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि कठोर श्रमणाचार की परिपालना में क्रियाभीरु साधारण वर्ग के अधिकांश श्रमणों एवं श्रमणियों ने अपना शेष जीवन सुखपूर्वक बिताने के लिये उस समय उत्तरोत्तर लोकप्रिय बनते जा रहे चैत्यवास का आश्रय लिया।
जो श्रमण प्रोजस्वी, मेधावी, विद्वान एवं वाग्मी थे, उन्होंने चैत्यवासियों के उत्तरोत्तर बढ़ते हुए प्रभाव से अपनी-अपनी आचार्य परम्परा की रक्षा के लिये, चैत्यवासियों की ओर उमड़े हए जनमानस को अपनी परम्परा में ही स्थिर एवं निष्ठावान बनाये रखने के लिये चैत्यवासियों द्वारा आविष्कृत आकर्षक विधिविधानों को थोड़ा नवीन रूप देकर अपना लिया। चैत्यवासियों के कतिपय कार्यकलापों एवं आडम्बरपूर्ण विधि-विधानों को पर्याप्त निखरे रूप में अपनाकर उन विद्वान् वाग्मी श्रमणों एवं प्राचार्यों ने भी आगमिक व्याख्यापरक भाष्यों आदि का निर्माण किया।
इस प्रकार के भाष्यों के अभिनव निर्माण के परिणामस्वरूप उन विद्वान् श्रमणों की परम्पराएं, चैत्यवासियों के उत्तरोत्तर बढ़ते हुए प्रभाव के उपरान्त भी कतिपय पीढ़ियों तक विभिन्न इकाइयों के रूप में न्यूनाधिक प्रभावशील भी.रहीं और इस प्रकार उन्होंने येन केन प्रकारेण अपना अस्तित्व बनाये रखा। जहां तक आगमों के प्रति गहन, गम्भीर एवं पारिभाषिक विषय को समझने तथा हृदयंगम करने का प्रश्न है, नियुक्ति, चूणि, भाष्य और टीका साहित्य बड़ा ही
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