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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - - भाग ३
कि वसुदेव हिण्डी के रचनाकार संघदासगरिण और धर्मसेनगरि २६ वें युगप्रधानाचार्य हारिलसूरि के समकालीन आचार्य थे ।
वसुदेव हिंडी न केवल कथा साहित्य की दृष्टि से अपितु धार्मिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक, व्यावसायिक, सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक आदि सभी दृष्टियों से बड़ा उपयोगी ग्रन्थ है ।
कथाओं के माध्यम से इसमें स्थान-स्थान पर धर्म और नीति का बड़ा ही हृदयस्पर्शी वर्णन किया गया है । हरिवंश, इक्ष्वाकुवंश के प्रमुख महापुरुषों के जीवनवृत्त के साथ-साथ इस ग्रन्थ में अनेक अन्तर्कथाएं भी दी गई हैं, जो बड़ी ही रोचक हैं |
वेदों की उत्पत्ति और विदेशों के साथ भारत के व्यापार का भी इसमें वर्णन किया गया है । प्रमुख रूपेण इस गद्यात्मक ग्रन्थ में सभी चित्रण बड़े सजीव, सहज-स्वाभाविक, सम्मोहक एवं सभी रसों से श्रोत-प्रोत हैं । घटनाओं के चित्रण तो ऐसे लोमहर्षक हैं कि उनको पढ़ते समय रोमावलि बारम्बार अनजाने में ही अंचित हो उठती है ।
वसुदेव हिण्डी को पढ़ने से पाठक पर स्पष्ट रूप से यह छाप अंकित होती है कि वस्तुत: संघदास और धर्मसेन दोनों गरिणवर वज्रलेखनी के धनी थे और वे सभी विषयों के पारदृश्वा प्रकाण्ड पण्डित थे ।
" सह नौ वीर्यं करवावहे " ' - इस प्राप्त वचन की अक्षरशः पालना करते हुए इन दोनों गरिगयों ने संयुक्तरूपेण पंचकल्पभाष्य की रचना की ।
भाव्य युग
वर्तमान में उपलब्ध भाष्यों के पर्यालोचन के पश्चात् संघदास क्षमाश्रमरण और धर्मसेन गणि को भाष्ययुग का प्रवर्तक कहा जा सकता है ।
आगमेतर जैन वांग्मय एवं जैन धर्म के इतिहास के गवेषणात्मक अध्ययन से एक और तथ्य प्रकाश में आया है कि अन्तिम एक पूर्वधर आचार्य देवगिरिण क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहण काल वीर नि. सं. १००० तक चतुविध जैनसंघ में केवल आगमिक विधि-विधान ही सर्वोपरि और सर्वमान्य रहे। यही स्थिति कुछ न्यूनाधिक परिमाण में युगप्रधानाचार्य हारिल के प्रारम्भिक युगप्रधानाचार्य काल में भी रही ।
किन्तु प्राचार्य हारिल के युगप्रधानाचार्य काल के लगभग दो दशक व्यतीत होने के अनन्तर उस स्थिति में परिवर्तन होना प्रारम्भ हुआ । श्रावकाचार और
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