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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
इन सब ऐतिहासिक उल्लेखों से निम्नलिखित ऐतिहासिक तथ्य प्रकाश में
आते हैं :
(१) वि० सं० ५७० ( वीर नि० सं० १०४०) के आस-पास किसी समय में वल्लभीपति महाराज शिलादित्य की राजसभा में मल्लवादी ने बौद्धाचार्य बौद्धानन्द को शास्त्रार्थ में पराजित किया ।
(२) वि० सं० ५८३ में रंक श्रेष्ठि ने छद्म रूप से शक प्राक्रान्ताओं को लाकर शिलादित्य का अन्त एवं वल्लभी का पतन करवाया । अपने . ज्ञानबल से मल्लवादी को वल्लभी का पतन का पूर्वाभास हो जाने के कारण उन्होंने अपने शिष्यों के साथ वल्लभी छोड़कर पंचासरपुरी की ओर विहार कर दिया । "
( ३ ) स्तम्भनक तीर्थ में उनके गुरु और समस्त संघ ने मल्लवादी को वल्लभी के पतन के पश्चात् प्राचार्य पद पर अधिष्ठित किया । प्रबन्ध कोष में प्राचार्य मल्लवादी को नागेन्द्रगच्छ का आचार्य बताया गया है ।
इस प्रकार युगप्रधानाचार्य हारिल के वीर नि० सं० १००० से १०५५ तक तक के युगप्रधानाचार्य काल में प्राचार्य मल्लवादी विक्रम की छठी तदनुसार वीर निर्वारण की ११वीं शताब्दी के महान् प्रभावक प्राचार्य माने गये हैं । इनका आचार्यकाल वीर नि० सं० १०४१ के पश्चात् कितने समय तक रहा, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख उपलब्ध जैनवांग्मय में दृष्टिगोचर नहीं होता ।
एतच्च प्रथमं ज्ञात्वा, मल्लवादी महामुनिः । सहित: परिवारेण, पंचासरपुरीमगात् ||६८ ।।
नागेन्द्रगच्छसत्केषु धर्मस्थानेष्वभूत् प्रभुः । श्री स्तम्भन तीर्थेऽपि, संघस्नस्येशतामधात् ॥ ६६ ॥
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( प्रबन्धकोष, पृष्ठ २३ )
( वही )
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