________________
वीर सम्वत् १००६ से उत्तरवर्ती श्राचार्य ]
ततोsथाकृष्य वणिजा, प्रक्षिप्ताश्च रणे शकाः । तृष्णया ते स्वयं मनुर्हता व्याधिर्महानयम् ॥ ६५ ॥
आचार्य मल्लवादी किस शताब्दी के प्राचार्य थे, उनका बौद्ध आचार्य बौद्धानन्द के साथ किस समय शास्त्रार्थ हुआ और वल्लभी का भंग किस सम्वत् में हुआ, इन सब ऐतिहासिक तथ्यों को अन्धेरे से प्रकाश में लाने वाला एक श्लोक प्रबन्धकोश में विद्यमान है, जो इस प्रकार है :--
विक्रमादित्यभूपालात्पंचर्षित्रिक वत्सरे ।
जातोऽयं वल्लभीभंगो, ज्ञानिनः प्रथमं ययुः ।। ६६ ।।
[ ४२१
अर्थात् - विक्रम संवत् ५७३ में वल्लभी का यह पतन अथवा भंग हुआ । अपने ज्ञान बल से ज्ञानियों को इस घटना का पूर्वाभास हो गया और वे वल्लभी के इस पतन से पूर्व ही वल्लभी छोड़कर अन्यत्र चले गये !
वस्तुत: यह तथ्य विभिन्न ऐतिहासिक तथ्यों से परिपुष्ट है । वल्लभी भंग की यह घटना विक्रम सं. ५७३ तदनुसार वीर नि. सं. १०४३ की है । युगप्रघानाचार्य पट्टावली के अनुसार रहवें युगप्रधानाचार्य हारिल का युगप्रधानाचार्य काल वीर नि. सं. १००० से १०५५ तक माना गया है । 'कुवलयमाला' के उद्धरणों के साथ यह भी पहले बताया जा चुका है कि प्राचार्य हारिल के युगप्रधानाचार्य काल के पूर्वार्द्ध में हूणराज तोरमाण भारतवर्ष की उत्तरी सीमा में काफी अन्दर तक के भू-भाग पर अपना प्राधिपत्य स्थापित कर चुका था और चन्द्रभागा नदी के तटवर्ती पर्वतका नाम के नगर को अपनी राजधानी बनाकर शासन संचालन कर रहा था । पर्वतिका नगरी में तोरमाण ने प्राचार्य हारिल को अपना गुरु बनाया ।
कुवलयमाला के इस उल्लेख से यह तो सिद्ध हो जाता है कि तोरमाण आचार्य हारिल का समकालीन महत्वाकांक्षी विदेशी प्राक्रान्ता था और उसने वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी के तृतीय दशक के समाप्त होते-होते भारत की उत्तरी सीमा के अधिकांश भूभाग पर अपना अधिपत्य जमा लिया था । इसके पश्चात् भारत विजय की अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये वह आगे बढ़ा और कच्छ विजय के पश्चात् उसकी मुठभेड़ शकों से विक्रम सं. ५७३ तदनुसार वीर नि० सं० १०४३ में हुई और उस युद्ध में हूरणराज तोरमाण ने शकराज और उसकी सेना को हरा कर वल्लभी के राज्य पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया । भारत के प्राचीन इतिहास के पर्यालोचन से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि इतिहासज्ञों के ग्रभिमतानुसार गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, राजस्थान और उज्जयिनी पर भी हूणराज तोरमाण ने वीर निर्वाण की ११ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के प्रारम्भ होने सं पूर्व ही अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org