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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
वल्लभी भंग
एक घोर अंधेरी रात में वह वल्लभी से प्रच्छन्नरूपेण निकला। वह बड़ी तीव्र गति से चलते-चलते शकों के राज्य में पहुंचा। शकराज़ के समक्ष उपस्थित हो रंकश्रेष्ठि ने अनेक अनमोल रत्न शकराज को भेंट किये। विपुल स्वर्णराशि का प्रलोभन दे रंकवेष्ठि ने शकराज को वल्लभी पर आक्रमण करने के लिये राजी किया। स्वर्ण के लोभ में आकर शकराज ने अपने सैन्यबल के साथ वल्लभी की ओर प्रयाण किया।
निकट भविष्य में ही वल्लभी नगरी पर घोर संकट आने वाला है, इस आसन्नसंकट का ज्ञानबल से आभास होते ही मल्लवादी ने अपने श्रमण संघ के साथ वल्लभी से विहार कर अन्य राज्यों में विचरण प्रारम्भ कर दिया।
वल्लभी पहुंच कर एक दिन अचानक शकराज ने नगरी पर भयङ्कर आक्रमण कर दिया। इधर रंक ष्ठि ने महाराजा शिलादित्य के अनुचरों को स्वर्ण देकर अपने स्वामी के साथ विश्वासघात करने के लिये प्रोत्साहित किया। परिणामस्वरूप शिलादित्य एकाकी ही शकों के सैन्य से घिर गया और रणक्षेत्र में शकों द्वारा मार दिया गया। शिलादित्य के मारे जाने पर वल्लभी की सेना के पैर उखड़ गये । शकों ने वल्लभी को जी भर कर लटा और भीषण नरसंहार के साथ-साथ वल्लभी को एक प्रकार से नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। वल्लभी भंग का जो चित्रण प्रबन्धकोश में किया गया है, वह इस प्रकार है :--
वंचयित्वा कार्पटिक, रंक: सोऽभून्महाधन: । तत्पुत्र्या राजपुत्र्याश्च, सख्यमासीत्परस्परम् ॥६१।। हैमी कंकतिकामेकां, दिव्यरत्नविभूषिताम् । रंकपुत्रीकरे दृष्ट्वा , याचते स्म न पात्मजा ॥६२।। तां न दत्ते पुनः रंको, राजा तं याचते बलात् । तेनैव मत्सरेणासौ म्लेच्छ सैन्यमुपानयत् ॥६३।। भग्नायुर्वल्लभी तेन, संजातमसमंजसम् । शिलादित्यः क्षयं नीतो, वाणिजा स्फीतऋद्धिना ॥३४।।
उन्हीं दिनों वल्लभी की ओर बढ़ते हुए हरणराज तोरमाण के साथ इन शकों का युद्ध हुआ । हूणों द्वारा उस शकराज और उसकी सेना का सम्भवतः पूर्णरूपेण संहार कर डाला गया। इस तथ्य का संकेत प्रबन्धकोश के निम्नलिखित श्लोक से मिलता है :
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