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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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___ "यह तो समय ही बतायेगा कि किसका हठ सफल सिद्ध होता है।" यह कहती हुई राजकुमारी कुद्ध होकर अपने राजप्रासाद की ओर लौट गई।
राजपुत्री ने अपनी माता के पास जाकर रंकपुत्री के पास देखी गई कंघी को येन केन प्रकारेण मंगवाने का हठ किया। माता ने बहुत समझाया, कहा"बेटी ! तुझे मैं दूसरी कंघी बनवा दूंगी, एक नहीं सौ, उस कंघी से भी उत्कृष्ट कोटि की। दूसरे की वस्तु पर हाथ डालना हमारे राजधर्म के विपरीत है। वह कंघी उस श्रेष्ठिपुत्री की है। वह अपनी वस्तु किसी को दे अथवा नहीं दे, यह उसी की इच्छा पर निर्भर करता है । इस प्रकार का अन्यायपूर्ण हठ एक राजपुत्री को शोभा नहीं देता।"
पर राजपुत्री ने अपना हठ नहीं छोड़ा और वह हठात् अपनी माता के समक्ष यह प्रतिज्ञा कर बैठी-वह की वह कंघी जब तक मेरे हाथ में नहीं आ जाएगी, मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूंगी।"
बात महाराजा शिलादित्य के पास पहुंची। शिलादित्य ने भी अन्त:पुर में पहंच कर अपनी पुत्री को समझाने में किसी प्रकार की कोरकसर नहीं रखी। व्यापारियों को बुलवा कर बहुमूल्य हीरों और मरिणयों से जटित सोने की कंघियों का ढेर राजपुत्री के समक्ष लगवा दिया। पर राजकुमारी अपने हठ से टस से मस तक नहीं हुई और बोली-- "मैं तो उसी कंघी को लेकर अन्न-जल ग्रहण करूगी, अन्यथा निर्जल और निराहार रहकर प्रारणों का परित्याग कर दूंगी।"
पुत्री के हठ के प्रागे शिलादित्य का पितृहृदय पिघल गया। उसने प्रधानामात्य को प्रादेश दिया कि वह रंकोष्ठि से उसके मुंहमांगे मूल्य पर वह कंघी प्राप्त करे। प्रधानामात्य ने रंक ष्ठि के पास जाकर कंघी प्राप्त करने के सभी प्रकार के प्रयास किये किन्तु रंकश्रेष्ठि की पुत्री के हठ के समक्ष उसके सभी प्रयास विफल रहे, शाम, दाम, और भेद इन सभी प्रकार के उपायों के निष्फल होने पर प्रधानामात्य ने शिलादित्य की मौन सम्मति से दण्ड का सम्बल ग्रहण किया और बल प्रयोग से वह कंघी प्राप्त कर राजकुमारी को दे दी गई।
राजकुमारी ने तो कंघी प्राप्त होते ही अपने हठ की पूर्ति हो जाने के कारण अन्न-जल ग्रहण कर लिया किन्तु रंकवेष्ठि और उसकी पुत्री के हृदय पर इस अन्यायपूर्ण घटना से गहरा आघात पहुंचा । अपने अर्थबल पर रंकवेष्ठि ने राजा द्वारा किये गये इस अत्याचार का प्रतिशोध लेने की ठानी।
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