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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - - भाग ३
बड़ा श्रीमन्त समझा जाने लगा । पर था वह अत्यन्त कृपरण । न तो वह अच्छा खाता था, न अच्छा पहनता ही था । यही कारण था कि सर्वाधिक सम्पत्तिशाली हो जाने पर भी लोग उसे उसके पूर्व के रंक नाम से ही पुकारते थे । उस रंक श्रष्ठि की इकलौती पुत्री की मैत्री शिलादित्य की राजपुत्री से हो गई । वे परस्पर एक दूसरी के यहां प्राती जातीं और हास्य विनोद करती रहतीं । राजपुत्री ने एक दिन रंकपुत्री के पास एक अनूठी कंघी देखी। कंधी स्वर्णनिर्मित, रत्नजटित तथा इतनी अधिक सुन्दर थी कि वह राजकुमारी के चित्त पर चढ़ गई । राजपुत्री ने कपुत्री की उस कंघी की भूरि-भूरि सराहना करते हुए कहा- "सखि ! यह कंघी मुझे बहुत अच्छी लगी है । यह कंघी मुझे दे दो ।"
रंकपुत्री ने उत्तर दिया - " यह कंघी मुझे अधिक प्रिय है, इसे तो मैं नहीं दूंगी।"
राजकुमारी ने मचलते हुए कहा - "नहीं, मैं तो यही कंघी लूंगी। जिस कलाकार ने इसे बनाया है, उससे तुम और बनवा लेना ।"
"यह कंघी तो मैं नहीं दूंगी। आप राजपुत्री हैं, महाराज को कह कर प्राप इससे भी अच्छी बनवा सकती हैं, वल्लभी राज्य में एक से एक उच्चकोटि के कलाकार इसके बनाने वाले हैं ।" रंकपुत्री ने उत्तर दिया ।
राजकुमारी ने आदेशात्मक स्वर में
कहा - "देखो सखि ! अब भी समय है । इसी समय यदि यह कंघी तुम मुझे देती हो तो मैं तुम्हें इसके बदले मुंहमांगा मूल्य देने को समुद्यत हूं। पर यदि तुम अपने हठ पर अड़ी रही तो मुझे भी हठाग्रह करना पड़ेगा। मैंने यदि हठ कर लिया तो तुम्हें इस कंघी से तो हाथ धोना ही पड़ेगा, बदले में तुम्हें एक फूटी कोड़ी भी प्राप्त नहीं होगी ।"
रंकपुत्री ने कहा--"यदि बाड़ ही खेत को खाने लगेगी तो देश चौपट हो जायगा । मैंने प्रापके साथ मैत्री की, यह मेरी अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल थी । नीति में कहा गया है :
नदीनां शस्त्रपारणीनां, नखीनां शृ गिरणां तथा । विश्वासो नैव कर्त्तव्यो स्त्रीषु राजकुलेषु च ।।
मैंने इस नीतिवाक्य की अवहेलना कर बड़ी भारी भूल की। मैं अपनी इस भूल का दण्ड भोगने के लिये सहर्ष समुद्यत हूं। आप भी सुन लीजिए - "यह कंघी मेरी अपनी है, इस पर मेरा न्यायसंगत स्वामित्व है । यह कंघी मैं स्वेच्छा से किसी को नहीं दूंगी | चाहे इसका कुछ भी परिणाम मुझे क्यों न भुगतना पड़े ।"
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