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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती आचार्य ] [ ४१७ राज्यसभा में लौट गये । उन्होंने विजयी मल्लवादी महामुनि को अपना गुरु बनाया और बौद्ध भिक्षुत्रों को शास्त्रार्थ की शर्त की अनुपूर्ति में वल्लभी राज्य से निर्वासित करने का आदेश दिया। उसी समय महाराज शिलादित्य ने वल्लभी राज्य में जैन साधु-साध्वियों के यथेष्ठ विहार की छूट देते हुए अपने श्रमात्यों को आदेश दिया कि वे अन्य राज्यों में विचरण करने वाले जैन साधुत्रों से वल्लभी राज्य में विचरण करने के लिये प्रार्थना करें । शत्रुन्जय तीर्थ भी पुन: जैन संघ के अधिकार में दे दिया गया ।" जैन साधु इस तरह महान् प्रभावक महावादी मल्लमुनि के प्रयत्नों से पुनः साध्वीगरण वल्लभी राज्य में यथेच्छ सर्वत्र विचरण कर धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे । प्राचार्य मल्लवादी के प्राचार्यकाल में जैनधर्म की उल्लेखनीय प्रगति हुई । वल्लभी राज्य में लुप्तप्राय जैनसंघ को उन्होंने पुनर्जीवित किया। इस धर्म प्रभावना का पूरा श्रेय मल्लवादी को ही प्राप्त हुआ क्योंकि उन्हीं के अप्रतिम वाद कौशल, तपस्या एवं त्याग से वल्लभी राज्य में जैनसंघ को अपना खोया हुआ स्थान प्राप्त करने के साथ ही साथ अपनी प्रतिष्ठा को पुनः प्रतिष्ठापित करने का सुअवसर प्राप्त हुआ । कालनिर्णायक ऐतिहासिक प्रमारण s ৩er आचार्य मल्लवादी विक्रम की छठी शताब्दी के एक महान् प्रभावक श्राचार्य थे, एतद्विषयक ऐतिहासिक प्रमारण जैन वांग्मय में उपलब्ध होता है, जो इस प्रकार है : : महाराजा शिलादित्य के राज्यकाल में वल्लभी नगरी में काकू नामक एक बैश्य रहता था । अपने प्रारम्भिक जीवन में वह बड़ा ही दीन, हीन एवं निर्धन था अतः जनसाधारण में वह रंक नाम से प्रसिद्ध हो गया । संयोगवशात् कालान्तर में वह अपरिमित धन-सम्पत्ति का स्वामी बन गया और वह वल्लभी राज्य का सबसे १ स्वयं गत्वा शिलादित्यस्तं तथास्थमलोकत । बौद्धान्नावासह देशाद्धिक प्रतिष्ठाच्युतं नरम् ॥ ५६ ॥ Za मल्लवादिनमाचार्य, कृत्वा वागीश्वरम् गुरुम् । विदेशेभ्यो जैनमुनीन् सर्वानाजूहवन्नृपः ॥५७॥ शत्रुञ्जये जिनाधीशं भवपञ्जरभञ्जनम् । कृत्वा श्वेताम्बरायत्तं यात्राँ प्रावर्तयन्नृपः || ५८ || Jain Education International For Private & Personal Use Only ( प्रबन्धकोश, पृष्ठ २३) www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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