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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
अवसर आया तो एक सभ्य ने कहा कि विजय-पत्र प्राचार्य बौद्धानन्द की उपस्थिति में दिया जाय । इस पर महाराज शिलादित्य ने बौद्धाचार्य को ससम्मान राज्यसभा में लाने हेतु राजपुरुषों को एवं कुछ विद्वानों को बौद्ध-मठ में भेजा। पर बौद्ध संघा राम बंद मिला।
पुनः पुनः आग्रह करने पर भी संघाराम के द्वार जब नहीं खोले गये तो राजपुरुष लौट आये एवं इससे महाराज शिलादित्य को अवगत करा दिया। यह जानकर शिलादित्य कुछ क्षण के लिये विचार मग्न हो गये। उन्हें विचार मग्न देख मुनि मल्ल ने कहा-"राजन् ! वस्तुस्थिति तो यह है कि वे बौद्धाचार्य अपनी पराजय के शोक को सहन नहीं कर सके हैं और शोकातिरेक वशात् उनका देहांत हो गया है।"
यह सुनकर महाराज शिलादित्य राजवैद्य एवं अन्य उच्चाधिकारियों के साथ बौद्ध संघाराम गये । महाराज शिलादित्य के पहुंचते ही बौद्ध भिक्षुओं ने संघाराम के कपाट खोल दिये । शिलादित्य ने बौद्धाचार्य के कक्ष में प्रवेश कर देखा कि आचार्य बौद्धानन्द निष्प्रारण पडे हुए हैं। एक वृहदाकार ग्रन्थ उनके दक्षिण-पार्श्व में खुला पड़ा है और उनके सिरहाने को ओर तथा दोनों पावों में ग्रन्थों का अम्बार लगा है।
महाराज शिलादित्य ने राजवैद्य को उन्हें देखने का आदेश दिया। राजवैद्य ने उनका निरीक्षण व परीक्षण कर निवेदन किया- "महाराज! अत्यधिक चिन्ता एवं शोक के कारण ये अपनी इहलीला समाप्त कर चुके हैं।" महाराज शिलादित्य
' मल्लवादिनि जल्पाके, नयचक्रबलोल्वणे । हृदये हारयामास षण्मासांते स शाक्यराट् ।।४८।। षण्मासांतनिशायां स, खं निशांतमुपेयिवान् । तर्कपुस्तकमाकृष्य, कोशात्किचिदवाचयत् ।।४६।। चिन्ताचक्रहते चित्ते, नास्तिान्धतु मीश्वरः । बौद्धः स चिन्तयामास, प्रातस्तेजोवधो मम ।।५।। श्वेताम्बरस्फुलिंगस्य किंचिदन्यदहो महाः । निर्वासयिष्यते ऽमी, हा! बौद्धा साम्राज्यशालिनः ।।५१।। इति दुःखौघसंघट्टाद्विदद्रे तस्य हृत्क्षणात् । नृपाह्वानं समायातं, प्रातस्तस्य द्रुतम् द्रुतम् ।। ५३।। नोद्घाटयन्ति तच्छिष्या, गृहद्वारं . वराककाः । मन्दो गुरुनाद्यभूपसभामेतेति भाषिणः ॥५४।। तद्गत्वा तत्र तरुक्तं, श्रुत्वा तन्मल्ल उल्लसन् । प्रवोचच्च शिलादित्यं मृतोऽसौ शाक्यराट् शुचा ।।५।।
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