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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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इतः एकनवतिः कल्पे, शक्त्या मे पुरुषो हतः ।
तेन कर्मविपाकेन, पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ।। हे भिक्षुत्रों ! आज से १६० कल्प पूर्व मेरे द्वारा प्रक्षिप्त एक शक्ति के प्रहार से एक पुरुष मर गया था। क्रमश: पतले पड़ते गये उस दुष्कर्म के परिणाम स्वरूप आज मेरा पैर कांटे से बिंध गया है।"
तो बौद्धानन्द के धर्मशास्त्रों में उल्लिखित यह कथानक स्पष्ट बता रहा है कि एक प्रात्मा ने १६० कल्प पूर्व जो पापकर्म किया उसका फल १६० कल्प पश्चात् उसी आत्मा को भोगना पड़ा। इस तरह प्रात्मा का अनवच्छिन्न अस्तित्व इस कथानक से सिद्ध होता है।
इस आख्यान के अतिरिक्त बौद्ध धर्म के प्रवर्तक तथागत बुद्ध तथा अन्य। बुद्धों के अनेक पूर्व जन्मों के चरित्र बौद्ध धर्म के आगमग्रन्थों में यत्र-तत्र उपलब्ध होते हैं, जिनमें स्पष्ट उल्लेख है कि सुदीर्घ अतीत में बोधिसत्व (बुद्ध का जीव) कबूतर था, अमुक बुद्ध के जीव बोधिसत्व ने अतीव प्राचीनकाल में अमुक-अमुक प्रकार की साधना की। बौद्ध आगमों में उल्लिखित इन सब पाख्यानों से न केवल आत्मा का अस्तित्व ही सिद्ध होता है किन्तु यह भी सत्य प्रकट होता है कि प्रात्मा वस्तुत: अजर-अमर है, शाश्वत अविनाशी तत्व है न कि क्षणविध्वंसी ।"
अपने वक्तव्य का निष्कर्ष के रूप में उपसंहार करते हुए मुनि मल्ल ने कहा--"इस प्रकार मैं ही कल वाला बौद्धानन्द हूं, इस कथन से भी और तथागत बुद्ध द्वारा प्रणीत बौद्ध प्रागमों से भी प्रात्मा क्षणविध्वंसी है, यह पक्ष स्वतः निरस्त हो जाता है।" सांध्य वेला हो जाने से शास्त्रार्थ अगले दिन के लिए स्थगित हो गया।
इधर वल्लभी के राजपथों पर एकत्रित जन समूह मुनि मल्ल के वादकौशल की सराहना देर रात तक करते रहे और उधर बौद्धाचार्य बौद्धानन्द अपने बौद्धविहार में रात भर बड़े-बड़े वाद ग्रंथों को देखने में व्यस्त रहे ।
समय पर तीसरे दिन शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ जो चौथे-पांचवें और इस प्रकार पूरे ६ मास तक चलता रहा ।
अन्ततोगत्वा छ: मास पूर्ण होने पर दूसरे दिन शास्त्रार्थ का निर्णय सुनाने व विजयपत्र प्रदान किये जाने की घोषणा की गई।
दूसरे दिन मुनि मल्ल राज्यसभा में उपस्थित हुए। पर प्राचार्य बौद्धानन्द अनुपस्थित थे। मुनि मल्ल विजयी घोषित किये गये। जब विजय-पत्र देने का
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