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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ४१३ आपकी सभा में बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए प्रतिमल्ल के रूप में उपस्थित हुआ हूं।'
दोनों पक्षों में से जो भी पक्ष शास्त्रार्थ में पराजित हो जायगा उसे वल्लभी राज्य की सीमा से निष्काषित कर दिया जायगा, इस शर्त को दोनों पक्षों द्वारा स्वीकार कर लिये जाने पर शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ।
किशोर मुनि मल्ल द्वारा प्रस्तुत किये गये अकाट्य तर्कों के समक्ष वह लब्ध प्रतिष्ठ बौद्ध ताकिक हतप्रभ हो गया ।
दिन भर शास्त्रार्थ चला। सांध्यवेला सन्निकट देखकर शिलादित्य ने शास्त्रार्थ को दूसरे दिन के लिये स्थगित कर सभा विसर्जित की।
दूसरे दिन यथा समय शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। बौद्धानन्द ने अपना पूर्व पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा :---
"प्रात्मा क्षणिक है, क्षण विध्वंसी है, वह शाश्वत नहीं, अजर अमर नहीं । क्योंकि संसार में जितनी भी वस्तुएं दिखती हैं, वे सब विनाशशील हैं, क्षण विध्वंसी हैं, उन सबका विनाश प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है, प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन स्पष्टतः परिलक्षित है । जब संसार की सब वस्तुएं विनाशशील हैं, क्षरण विध्वंसी हैं, संसार की कोई भी वस्तु शाश्वत नहीं, अमर नहीं तो इससे यही प्रमाणित होता है कि आत्मा भी क्षणविध्वंसी है। संसार में जब कि कोई वस्तु शाश्वत नहीं तो आत्मा संसार के क्षरण विध्वंसी विनाशशील स्वभाव के विपरीत शाश्वत अथवा अजर अमर कैसे हो सकती है।"
किशोर मुनि मल्ल ने उत्तर देते हए कहा :-"महाराज! कल जिस बौद्धानन्द नामक वादी ने राज्यसभा में शास्त्रार्थ प्रारम्भ किया था, उसी बौद्धानन्द वादी को यहां उपस्थित किया जाय । मैं उसी बौद्धानन्द को आपके समक्ष वाद में पराजित करना चाहता हूं। कल वाले बौद्धानन्द के स्थान पर आये हुए इन नये छद्म नामघारी बौद्धानन्द से कहा जाय कि वह कल वाले बौद्धानन्द को शीघ्रातिशीघ्र राज्य सभा में उपस्थित करे। राजन् ! इसके साथ ही मेरा यह भी निवेदन है कि उन कल बाले बौद्धानन्द के यहां उपस्थित हो जाने पर आज यहां वाद के लिए उपस्थित
' बौद्धमुंधा जगज्जग्घ, प्रतिमल्लोऽहमुत्थितः ।
अप्रमादी मल्लवादी, त्वदीयो भगिनीसुतः ।।४६।। २ शिलादित्यनृपोपान्ते बौद्धाचार्येण वाग्मिना । वादिवृन्दारकश्चक्रे तर्कबर्क रमुल्वरणम् ।।४७|| (सिंधी जैन ज्ञानपीठ, विश्वभारती, शान्तिनिकेतन से प्रकाशित प्रबन्धकोषक २३)
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