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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती आचार्य ]
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प्रबन्धकोश में उल्लिखित कतिपय ऐतिहासिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर प्राचार्य मल्लवादोसरि का समय विक्रम सं० ५७३ तदनुसार वीर निर्वाण सं० १०४३ के आसपास का प्रमाणित होता है। 'प्रबन्धकोश' में जो ऐतिहासिक तथ्य उल्लिखित हैं, उनसे इस बात की पुष्टि होती है कि वि. सं. ५७३ में प्राचार्य मल्लवादीसूरि विद्यमान थे।
प्रबन्धकोशकार रत्नशेखरसूरि ने आचार्य मल्लवादी के विषय में प्रभावक चरित्रकार से कुछ भिन्न विवरण दिया है । उन्होंने आचार्य मल्लवादी को वल्लभी के महाराजा शिलादित्य का भागिनेय बताते हुए लिखा है कि वल्लभी पर अधिकार करने के पश्चात् शिलादित्य ने अपनी बहिन का विवाह भृगुकच्छ के राजा के साथ किया। समय पर शिलादित्य की बहिन ने एक महान् तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया। उस पुत्र का नाम "मल्ल" रखा गया। प्रबन्धकोशकार के अनुसार शिलादित्य प्रारम्भ में जैनधर्म का अनुयायी था। उसने शत्रुजय पर्वत पर चैत्य का उद्धार किया और वह अपने आपको महाराज श्रेणिक जैसे जिनशासन प्रभावक श्रावकों की श्रेरिण में समझता था। उस समय बल्लभी का जैनसंघ एक शक्तिशाली और सुगठित संघ था।
उन्हीं दिनों एक महान् तार्किक एवं वादकुशल बौद्ध प्राचार्य महाराजा शिलादित्य की राजसभा में उपस्थित हुआ और उसने जैन विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ करने की अभिलाषा प्रकट की। उस बौद्धवादी ने शास्त्रार्थ के विषय में यह शर्त रखी कि जो पक्ष शास्त्रार्थ में पराजित हो जायगा वह पक्ष वल्लभी राज्य को छोड़ कर चला जायगा । दोनों पक्षों द्वारा इस शर्त को स्वीकार किये जाने के अनन्तर दोनों पक्षों . के बीच शास्त्रार्थ प्रारम्भ हा। शास्त्रार्थ अनेक दिनों तक चला और अन्त में बौद्ध तार्किक विजयी घोषित किया गया और देवसंयोग से श्वेताम्बरों को पराजय का मुख देखना पड़ा। पूर्वनिर्धारित शर्त के अनुसार श्वेताम्बरों को वल्लभी राज्य के बाहर जाना पड़ा । शिलादित्य भी बौद्ध धर्म अनुयायी बन गया। वल्लभी राज्य में जो जैन तीर्थ थे उन पर बौद्धों ने अधिकार कर लिया और इस प्रकार वल्लभी राज्य में बौद्धों का वर्चस्व स्थापित हो गया।
___उन्हीं दिनों भृगुकच्छ के राजा की मृत्यु हो गयी। इस कारण शिलादित्य की भगिनी को सांसारिक कार्यकलापों से विरक्ति हो गई और उसने प्रवर्तिनी जैन साध्वीमुख्या के पास श्रमणी धर्म की दीक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ अपने प्रष्ट वर्षीय पुत्र मल्ल को भी जनाचार्य के पास श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण करवा दी।
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१ निजां 'स्वसारं' स ददौ, भृगुक्षेत्रमही भुजे । प्रसूत सा सुतं दिव्यतेजसं दिव्यलक्षणम् ॥२१॥
(प्रबन्धकोश, पृष्ठ २२)
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