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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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सभी विद्वानों ने उस ग्रंथरत्न को परम उपादेय बताते हुए मल्ल मुनि की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
गुरु ने हर्षविभोर हो उन्हें सूरि पद प्रदान किया और इस प्रकार वे अल्प वयस्क साधु होते हुए भी मल्ल मुनि से मल्ल सूरि बन गये । इस प्रकार तपस्या के प्रभाव से अलौकिक शक्ति संचित कर मल्लसूरि ने भृगुकच्छ की ओर अप्रतिहत विहार किया। भृगुकच्छ पहुंच कर मल्लसूरि ने राजसभा में बौद्ध भिक्षु बुद्धानन्द के साथ शास्त्रार्थ प्रारम्भ किया। उन्होंने ६ मास तक स्वयं द्वारा प्रणीत 'नयचक्र' नामक ग्रंथरत्न में निहित अति निगूढ़ तत्त्वों, नयों एवं अकाट्य यूक्तियों के आधार पर बद्धानन्द के साथ शास्त्रार्थ किया । अन्त में बद्धानन्द पराजित हुआ। राजा ने प्राचार्य मल्ल को विजयी घोषित किया और उन्हें 'वादी' की उपाधि से विभूषित कर सम्मानित किया। उसी दिन से मल्लसूरि मल्लवादी के नाम से प्रख्यात हए । इस प्रकार मल्ल वादी ने भृगुकच्छ में जैन संघ को उसकी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्रदान की। जिन शासन की बड़ी प्रभावना हुई और भृगुकच्छ में पुन: जैन संघ का वर्चस्व स्थापित हो गया।
भृगुकच्छ का संघ तत्काल वल्लभी की ओर प्रस्थित हुआ । जयानन्दसूरि की सेवा में पहुंच संघ ने उन्हें भृगुकच्छ की भूमि को अपने पावन पदार्पण से पवित्र करने की प्रार्थना की। संघ की प्रार्थना स्वीकार कर जयानन्दसूरि अपने श्रमणश्रमणी समूह के साथ भृगुकच्छ पधारे। गुरु-शिष्य का मधुर-मिलन हुआ। जिनानन्द सूरि ने दुर्लभदेवी की ओर कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से देखते हुए गम्भीर स्वर में कहा"बहिन ! वस्तुतः तुमने पुत्रवतियों की श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया है।"
जिनानन्दसूरि पहले ही अपने शिष्य मल्ल को सूरि पद प्रदान कर चुके थे। अब उन्होंने अपने संघ का समस्त कार्यभार अपने सुयोग्य शिष्य मल्लवादी को सौंप कर स्वयं पूर्णतः आत्महित साधना में संलग्न हो गये।
मल्लवादी सूरि ने 'नयचक्र' और पद्मचरित (रामायण) इन दो विशाल ग्रंथरत्नों की रचना की ।' इन दो ग्रंथरत्नों के प्रणयन के साथ ही साथ मल्लवादी ने आ० सिद्धसेन प्रणीत सन्मतितर्क की टीका भी लिखी। उन्होंने अपने अनेक कुशाग्रबुद्धि शिष्यों को द्वादशारचक्र तुल्य बारह अध्याय वाले नयचक्र महाग्रंथ का अध्ययन करा उन्हें अनेकांत दर्शन, न्याय और तर्कशास्त्र का पारंगत विद्वान् बनाया। शास्त्रार्थ प्रधान उस युग में उच्च कोटि के न्याय ग्रंथ का निर्माण कर स्वयं मल्लवादी ने अजेय सौगत प्रतिवादी बुद्धानन्द को पराजित कर और अपने अनेक शिष्यों को
१ श्रीपद्मचरितं नाग रामायण मुदाहरत् । चतुर्विशतिरेतस्य सहस्रा ग्रंथमानतः ।।७।।
(प्रभावकचरित्र, पृष्ठ ७६)
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