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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने का प्रण किया। मल्ल श्रमण ने किन्हीं पूर्वाचार्य द्वारा ज्ञान प्रवाद नामक पञ्चम पूर्व से निर्दृढ़ (सारग्रहण पूर्वक रचित) 'नयचक्र' ग्रन्थ को पढ़ने का निश्चय किया । जिनानन्द सूरि और प्रार्या दुर्लभदेवी ने मेधावी नवयुवक श्रमरण मल्ल को समझाया कि परम्परागत पूर्वाचार्यों ने इस पुस्तक को खोलने तक का निषेध किया है, अतः इसे खोलने तथा पढ़ने का प्रयास कदापि न करना। किन्तु मल्ल मुनि तो बौद्ध भिक्ष को पराजित करने के लिये नयचक्र पढ़ने का निश्चय कर चुके थे। अत: उन्होंने नयचक्र महाग्रंथ को खोलकर पढ़ना प्रारम्भ किया। उन्होंने नयचक्र ग्रंथ के प्रथम पत्र पर आर्या छन्द की निम्नलिखित गाथा को पढ़ा :
विधिनियमभंगवृत्तिव्यतिरिक्तत्वादनर्थकमवोचत् ।
जैनादन्यच्छासनमनृतम् भवतीति वैधर्म्यम् ।। वे इस गाथा के अर्थ का मनन कर ही रहे थे कि वह उस पत्र सहित पुस्तक उनके हाथ से किसी अदष्ट शक्ति के प्रभाव से लुप्त हो गई। मुनि मल्ल आश्चर्याभिभूत हो शोकसागर में निमग्न हो गये। "हाय ! गुरुवचन की अवमानना का घोर दुष्परिणाम मुझे भोगना पड़ रहा है"- यह कर कर वे रुदन करने लगे। आखिर थी तो उनकी बाल्यावस्था ही न, इसलिये वे फूट-फूट कर रोने लगे । उनकी माता आर्या दुर्लभदेवी ने पास या उन्हें रोने का कारण पूछा । मल्ल मुनि ने 'नयचक्र' ग्रंथ को खोलने, उसकी एक गाथा पढ़ने और हठात् उनके हाथ से आश्चर्यजनक रूप से पुस्तक के तिरोहित हो जाने का पूरा वृत्तांत यथावत् अपनी माता को कह सुनाया।
संघ को जब उस अलभ्य ग्रन्थ के लुप्त होने की आश्चर्यजनक घटना विदित हुई तो सब को गहरा दुःख हुआ। "जो वस्तु मेरे हाथ से विलुप्त हुई है, उसकी रचना मुझे ही करनी चाहिये ।" यह विचार कर मल्ल मुनि ने श्रुतदेवी की आराधना करने का दृढ़ निश्चय किया। समीपस्थ खण्डल पर्वत पर जा उसकी एक गुफा में वे तपश्चरण में लीन हो गये। दो-दो दिन तक निराहार रहकर वे षष्टम भक्त तप की तपाराधना करने लगे। प्रत्येक षष्टम तप के पारणक के दिन वे नितांत रूक्ष भोजन और वह भी, अल्प मात्रा में ग्रहण करते । वे चार मास तक निरन्तर इसी प्रकार घोर तपश्चरण करते रहे। चातुर्मासिक पारणक के दिन मां दुर्लभदेवी और चतुर्विध संघ की अतीव प्राग्रहपूर्ण प्रार्थना पर उन्होंने श्रमणों द्वारा लाये हुए सरस स्निग्ध भोजन को निरीह भाव से ग्रहण किया। तदनन्तर वे पुनः उसी प्रकार तपश्चरण में लीन हो गये ।
६ मास तक निरन्तर इसी प्रकार कठोर तपश्चरण करते रहने के परिणामस्वरूप उनके अन्तर्ह रद में वाद और ग्रंथप्रणयन की अद्भुत दिव्य शक्ति प्रकट हुई। तदनन्तर मल्ल मुनि ने एक अति विशाल नवीन 'नयचक्र' ग्रंथरत्न की रचना की।
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