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वीर सम्वत् १०००
उत्तरवर्ती श्राचार्य ]
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वल्लभी में जिनानन्द सूरि की बहिन रहती थी जिसका नाम था वल्लभ देवी । उसके तीन पुत्र थे । बड़े का नाम श्रजितयश, मंझले का नाम यश और सबसे छोटे का अर्थात् तीसरे पुत्र का नाम मल्ल था ।' वल्लभदेवी के तीनों ही पुत्र बड़े ही प्रतिभा सम्पन्न बालक थे। प्राचार्य जिनानन्द सूरि ने वल्लभी के विशाल जनसमूह के समक्ष संसार के सभी प्रकार के दुःखों से सदा-सर्वदा के लिये मुक्ति दिलाने वाले मोक्ष मार्ग पर प्रकाश डालते हुए अपने प्रवचनों में संसार की अनित्यता, जीवन की क्षणभंगुरता एवं दुर्लभ तथा अनमोल मानव जीवन के वास्तविक कर्त्तव्यों का दिग्दर्शन करवाया। प्राचार्यश्री के प्रेरणाप्रदायी प्रवचनामृत का पान कर दुर्लभदेवी और उसके तीनों पुत्रों का अन्तर्मन विरक्ति के गहरे रंग में रंग गया । उन चारों प्राणियों ने अक्षय सुख की प्राप्ति के लिये मुक्ति पथ पर चलने का दृढ़ संकल्प अपने आराध्य प्राचार्यदेव के समक्ष रखा। माता और तीनों पुत्रों ने जयानन्द सूरि से श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहरण की ।
प्रभावक चरित्र में प्राचार्य मल्लवादी के पिता और कुल का कोई परिचय नहीं दिया गया है । 'प्रबन्धकोश' में मल्लवादी का जो परिचय दिया गया है, उसमें बताया गया है कि दुर्लभदेवी सौराष्ट्र के शक्तिशाली एवं महान् प्रतापी महाराजा शिलादित्य की बहिन थी और इस प्रकार प्राचार्य मल्लवादी महाराजा शिलादित्य के भागिनेय थे ।
श्रमणधर्म में दीक्षित होने के अनन्तर अजितयश, यश श्रौर मल्ल इन तीनों सहोदर श्रमरणों ने न्याय, नीति, व्याकरण, साहित्य एवं लक्षरणादि महाशास्त्रों का प्रगाढ़ निष्ठा एवं परिश्रम से अध्ययन किया और वे तीनों ही श्रमण शास्त्रों के गहन-गम्भीर ज्ञान से सम्पन्न उद्भट विद्वान बन गये । उनकी विद्वत्ता की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई ।
मल्ल श्रमरण ने स्थविर श्रमरणों से सुना कि बौद्ध भिक्षु बुद्धानन्द ने उनके गुरु जिनानन्द को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था । अपने प्राराध्य गुरुदेव की पराजय का वृत्तान्त सुनकर उनके अन्तर में प्रसह्य दु:ख हुआ । अपने गुरु की पराजय और जिनशासन का घोर अपमान उनके हृदय में तीक्ष्ण कांटे की तरह खटकने लगा । उन्होंने मन ही मन गुरु और जिनशासन की भृगुकच्छ में उस खोयी हुई
१
तत्र दुर्लभदेवीति, गुरोरस्ति सहोदरी । तस्याः पुत्रास्त्रयः सन्ति ज्येष्ठो जितयशोऽभिधः ।। द्वितीयो यशनामाभूत्, मल्लनामा तृतीयकः । संसारासारतां चैषां मातुलः प्रतिपादिता ।। जनन्या सह ते सर्वे, बुद्ध्वा दीक्षामयादधुः । संप्राप्ते हि तरण्डे कः पाथोधि न विलंघयेत् ॥ ( प्रभावकचरित्र, पृष्ठ ७८ )
२
मल्ल : ममुल्लमन्मल्लीफुल्ल वेल्लद्य शोनिधिः । शुश्राव स्थविराख्यानात् न्यक्कारम् बौद्धतो गुरोः ।
( वही )
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