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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ४०५ वराहमिहिर को अपनी यह पराजय मृत्यु से भी अधिक भयंकर अनुभव हुई । पुत्रशोक और लोक में व्याप्त अपनी अपकीर्ति के संताप से संतप्त हो वह अपने घर-द्वार को छोड़कर परिव्राजक बन गया । उसके मन मस्तिष्क में यह विचार गहरा घर कर गया कि भद्रबाहु के कारण ही उसे संयम का परित्याग करना पड़ा, उन्हीं के निमित्त से उसकी अनेक वर्षों के अथक प्रयास से उपार्जित समग्र प्रतिष्ठा क्षण भर में ही नष्ट हो गई । वराहमिहिर अपने ज्येष्ठ सहोदर भद्रबाहु को अपना सबसे बड़ा शत्रु समझ कर येन केन प्रकारेण उनसे प्रतिशोध लेने के उपाय सोचने लगा । अज्ञान के वशीभूत हो उसने प्रतिशोध की भावना से अनेक प्रकार के कठोर तप किये । महाव्रतों के भंग के महापाप का और अपने मिथ्या अहं का प्रायश्चित किये बिना ही मर कर वह हीन ऋद्धि वाला वाराण व्यन्तर देव हुआ । उस व्यन्तर ने विभंग ज्ञान से अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त जानकर भद्रबाहु से अपने पूर्व जन्म के वैर का बदला लेने का निश्चय किया । पर धर्मकवचधारी प्राचार्य भद्रबाहु का अनिष्ट करने में अपने आपको असमर्थ पाकर उस व्यन्तर ने उनके जैन संघ के कतिपय श्रमरणों एवं गृहस्थ समूह को अनेक प्रकार के कष्टोपसर्ग देना प्रारम्भ किया । व्यन्तरकृत उपसर्गों से संत्रस्त श्रावक संघ ने भद्रबाहु से प्रार्थना की - " भगवन् ! यह कैसी विचित्र विडम्बना है कि : : हस्तिस्कन्धाधिरूढोऽपि भषणर्भक्ष्यते जनः । "गजराज की पीठ पर बैठे हुए लोगों को भी कुत्ते काट रहे है ।" ग्राप जैसे महान् प्राचार्य के श्रमण एवं श्रमणोपासक वर्ग को भी एक सामान्य व्यन्तर इस कहावत को चरितार्थ कर अनेक प्रकार की यातनाएं दे प्रपीड़ित कर रहा है । इस पर आगमज्ञान और ज्योतिष शास्त्र में निष्णात प्राचार्य भद्रबाहु ने एक चमत्कारी स्तोत्र की रचना कर जैनसंघ को सुनाया। संघ ने उसका पाठ किया । उस महान् चमत्कारी स्तोत्र के प्रभाव से वह व्यन्तरकृत उपसर्ग सदा सर्वदा के लिये शान्त हो गया । वह चमत्कारी स्तोत्र ग्राज भी " उवसग्गह स्तोत्र" के से बड़ा लोकप्रिय है । नाम , प्राचार्य भद्रबाहु ने "भद्रबाहु संहिता" नामक एक ज्योतिष ग्रन्थ की और "अर्हत् चूड़ामरिण " नामक प्राकृत ग्रन्थ की भी रचना की। आपकी 'भद्रबाहु संहिता' नाम की कृति वर्तमान में उपलब्ध नहीं है । वर्तमान में जो इस नाम की कृति उपलब्ध है, वह किसी अन्य विद्वान् की कृति प्रतीत होती है । केवली भद्रबाहु के जीवन की घटनाओं के साथ उनसे लगभग ८०० वर्ष पश्चात् हुए द्वितीय भद्रबाहु के जीवन की घटनाओं को संपृक्त कर जो जीवनवृत्त अनेक ग्रन्थों में दिया गया है, उन ग्रन्थों में से ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर छांट-छांट कर निमित्तज्ञ भद्रबाहु का कुछ परिचय प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । इस सम्बन्ध में आगे और शोध की प्रावश्यकता है । x Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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