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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ४०३ पहंचा। राजपुरोहित वराहमिहिर भी महाराजा के साथ था। धर्मोपदेश के समापन के पश्चात् राजा अपने राजपुरोहित के साथ आचार्यश्री से ज्ञान चर्चा में निमग्न हो गया। उसी समय एक संदेशवाहक ने वराहमिहिर के पुत्रजन्म होने का सबको सम्वाद सुनाया। महाराजा ने संदेशवाहक को पारितोषिक प्रदान कर वराहमिहिर से प्रश्न किया -- "पुरोहितजी ! आपका यह पूत्र किन-किन विद्याओं में निष्णात, कितनी आयुष्य वाला एवं किन-किन के द्वारा सम्मानित होगा? सौभाग्य से अाज सकल विद्याओं के निधान आचार्यदेव भी यहां विद्यमान हैं, अतः इनसे भी हमें ज्योतिष विद्या की पूर्णता का प्रमाण प्राप्त हो सकेगा।" वराहमिहिर ने कहा :- "महाराज ! इस बालक के जन्मकाल, ग्रहगोचर, नक्षत्र, लग्न आदि पर विचार करने के अनन्तर मैं यह कहने की स्थिति में हैं कि यह बालक शतायु, समस्त विद्याओं में निष्णात और आपके द्वारा एवं आपके पुत्रों एवं पौत्रों द्वारा भी पूजित होगा।" निमित्त शास्त्र में पारंगत विद्वान् प्राचार्य भद्रबाहु से भी नृपति ने प्रार्थनापरक स्वर में प्रश्न किया :- "भगवन् ! क्या ऐसा ही होगा, जैसा कि पुरोहितजी कह रहे हैं ?" प्राचार्य भद्रबाहु शान्त निश्चल भाव में मौनस्थ रहे। राजा द्वारा पुनः पुनः प्राग्रहपूर्ण प्रार्थना किये जाने पर 'यद्यपि जैन श्रमण के लिये शास्त्रों में निमित्त कथन का स्पष्टत: निषेध है तथापि रोग निवारणार्थ कटु औषध का पिलाना भी कभी प्रावश्यक होता है'- यह विचार कर निमित्तज्ञ प्राचार्य भद्रबाहु ने कहा :-- "राजन् ! वास्तविकता कुछ और ही है, जिसे मुझे प्रकट नहीं करना चाहिये । उसके प्रकट करने से कोई लाभ नहीं है । फिर भी आपके अत्यन्त प्राग्रह को देखकर मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि कर्म विपाक का फल अनिवार्य और अचिन्त्य है। जो होने वाला है, वह सातवें ही दिन सबको विदित हो जायगा।" प्राचार्य भद्रबाहु के प्रति वराहमिहिर के अन्तर्मन में जो विद्वषाग्नि वर्षों से प्रच्छन्न रूप से जल रही थी, और जिसे वह प्रयत्नपूर्वक अब तक दबाये हुए था, वह भद्रबाहु की यह बात सुनकर सहसा भड़क उठी। उसने प्राक्रोशपूर्ण चुनौती भरे स्वर में कहा :- "राजन् ! इन जैन श्रमरणों की ज्योतिष शास्त्र में नाम मात्र की भी गति नहीं है। यदि इन्हें थोड़ा बहुत भी ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान हो तो स्पष्ट रूप से बतायें कि सातवें दिन क्या विदित होने वाला है। मैंने समस्त ज्योतिष शास्त्रों का अवगाहन किया है । मेरी भविष्यवाणी में कहीं किंचित् मात्र भी अन्तर नहीं आने वाला है । केवल मेरी बात का विरोध करने के लिये इन्होंने ऐसी अस्पष्ट बात कही है, जिसका कोई अर्थ नहीं निकलता। यदि इनमें इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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