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________________ ४०२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास -- भाग ३ अर्थात् गणधर जैसे गरिमामय पद को गौतम आदि धीर गम्भीर महापुरुषों ने वहन किया है। ऐसे महान पद पर यदि कोई जानबूझ कर इस पद के अयोग्य किसी अपात्र को नियुक्त कर देता है तो वह घोरातिघोर पाप का भागी होता है। ___ इस बात को ध्यान में रखते हुए उन आचार्य ने वराहमिहिर को प्राचार्य पद के अयोग्य और भद्रबाहु को आचार्य पद के योग्य समझ कर मुनि भद्रबाहु को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर उन्हें प्राचार्य पद प्रदान किया। अपने गुरु के इस निर्णय से वराहमिहिर के हृदय को गहरा आघात पहुंचा । वह मन ही मन अपने ज्येष्ठ भ्राता भद्रबाहु से ईर्ष्या और विद्वेष रखने लगा। उसने इसे अपना अपमान समझ कर सदा के लिये अपने बड़े भाई भद्रबाह का साथ छोड़ कर अन्यत्र चले जाने का निश्चय कर लिया। तीव्र कषाय एवं मिथ्यात्व के उदय से उसके मन में भद्रबाह के विरुद्ध विद्वषाग्नि इतनी प्रबल वेग से भड़क उठी किं अपने बारह वर्ष के श्रमण जीवन को तिलांजलि दे वे पुन: गृहस्थ बन गये। उन्होंने प्राचीन ग्रन्थों से चमत्कारी मन्त्रों एवं तन्त्रों का चयन कर अनेक श्रीमन्तों के हृदय पर अपना प्रभाव जमाया और उनसे विपुल धन प्राप्त करने लगे । ज्योतिष मन्त्र, तन्त्र आदि के चमत्कारिक प्रभाव से ज्यों-ज्यों उन्हें धन की . उपलब्धि होती गई, त्यों-त्यों उनकी भौतिक महत्वाकांक्षाएं बढ़ती गई। जनमानस पर अपनी महत्ता की अमिट छाप जमाने के लिए उन्होंने अपने भक्तों के माध्यम से इस प्रकार का प्रचार करवाना प्रारम्भ कर दिया कि वे बारह वर्ष तक सूर्यमण्डल में रहकर आये हैं । स्वयं सूर्य ने उसे ग्रहमण्डल के उदय, अस्त, गति, स्थिति और उनके शुभाशुभ फल प्रादि प्रत्यक्ष दिखा कर ज्योतिष शास्त्र की सम्पूर्ण शिक्षा दी है। स्वयं सूर्य ने उसे ज्योतिष विद्या में पूर्णत: पारंगत कर पृथ्वी पर भेजा है। उन्होंने सूर्य प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति एवं अन्यान्य ज्योतिष ग्रन्थों से ज्योतिष के सार को लेकर एक अपूर्व ज्योतिष ग्रन्थ की रचना की। इस प्रकार उनकी अनेक चमत्कारपूर्ण कृतियों एवं किंवदन्तियों के परिणामस्वरूप वराहमिहिर की चारों ओर प्रसिद्धि फैलने लगी। इस लोकप्रसिद्धि से प्रभावित होकर प्रतिष्ठानपूर के महाराजा ने वराहमिहिर को अपना राजपुरोहित बना लिया। राजपुरोहित का पद प्राप्त कर लेने के अनन्तर तो वराहमिहिर के ज्योतिष ज्ञान की ख्याति चारों ओर और भी तीव्रता से फैलने लगी। उन्हीं दिनों निमित्तज्ञ आचार्य भद्रबाहु का प्रतिष्ठानपुर में आना हुआ। इस शुभ सम्वाद को सुनकर प्रतिष्ठानपुर का राजा भी अपने परिजनों एवं पौरजनों के साथ प्राचार्यश्री के दर्शन और प्रवचन श्रवण के लिये नगर के बाहर उद्यान में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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