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बोर सम्वत १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ।
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वीर निर्वाण की आठवी शताब्दी के अन्तिम दशक में महाराष्ट्र के प्रतिप्ठानपुर नामक नगर में भद्रबाह और वराहमिहिर नामक दो ब्राह्मणकिशोर रहते थे। वे दोनों सहोदर थे तो बड़े कुशाग्रबुद्धि और विद्वान्, किन्तु थे नितान्त निराश्रित और निर्धन ।
एक दिन उन दोनों भ्राताओं को एक विद्वान जैनाचार्य के प्रवचन सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन महापुरुष का उपदेश सुनकर ब्राह्मण किशोर भद्रबाहु का रोम-रोम वैराग्य के रंग में रंग गया। उसने श्रमण धर्म में दीक्षित होने का दृढ़ संकल्प कर अपने लघु सहोदर वराहमिहिर से कहा-"प्रिय अनुज ! मुझे इस संसार से विरक्ति हो गई है । अतः मैं तो इन समर्थ गुरुचरणों की शरण ग्रहण कर जीवन पर्यन्त संयम की साधना करूंगा । तुम घर लौट जानो और पूरी दक्षता के साथ अपने जीवन को सुखी बनाने में जुट जाओ। तुम्हारा जीवन सुखमय हो, यही मेरी कामना है।"
इस पर वराहमिहिर ने कहा- "आदरणीय अग्रज ! जब आप इस संसार सागर से पार होने के लिए महान् धर्मपोत का आश्रय ग्रहण करने का दृढ़ निश्चय कर चुके हैं तो फिर मैं पीछे रहकर भवसागर में क्यों डूबूगा। मैं आपका अनुज हूं, मैं भी प्रापका अनुगमन करूगा।"
उन दोनों ब्राह्मण किशोरों ने प्राचार्यदेव के पास श्रमणधर्म की दीक्षा अंगीकार की। दोनों मुनि भ्राताओं ने गुरुचरणों में बैठकर शास्त्रों का अध्ययन किया। मुनि भद्रबाहु ने विनयपूर्वक बड़ी निष्ठा के साथ आगमों का अध्ययन किया
और उनकी गणना आगम-मर्मज्ञ मुनियों में की जाने लगी। मुनि भद्रबाहु बड़े ही विनीत, सेवाभावी, स्वाध्यायपरायण और आगमज्ञान के रसिक थे। दूसरी ओर मुनि वराह मिहिर का पूरा झकाव चमत्कार प्रदर्शन की ओर रहा। वे अपने गुरु और ज्येष्ठ बन्धु भद्रबाहु की हितशिक्षाओं की उपेक्षा कर केवल ज्योतिष शास्त्रों के अध्ययन मनन में ही अपने जीवन की सफलता को प्रांकने लगे । वराहमिहिर ने चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति एवं अन्यान्य ज्योतिष ग्रन्थों का अध्ययन गहरी रुचि से किया। वे निमित्तज्ञानी बन गये एवं अपने इस निमित्तज्ञान के बल पर स्वयं को प्राचार्यपद का वास्तविक अधिकारी समझने लगे। अपने ज्योतिष ज्ञान पर उनके अन्तर में अहंकार भी जागत हो उठा और वह उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। अपने अन्तिम समय में इन दोनों के गुरु ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में आचार्य पद प्रदान करने के लिए अपने शिष्यवर्ग में से किसी सुयोग्य शिष्य का चयन करने का निश्चय किया। इस सम्बन्ध में विचार करते-करते निम्नलिखित एक गाथा उनके ध्यान में आई :---
बूढो गणहर सद्दो, गोयमाइहिं धीरपुरिसेहिं । जो तं ठवइ अपत्ते, जाणतो सो महापावो ।।
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