________________
वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
| ३६६
एवं घटनाओं की ओर संकेतकारी बिन्दु में सिन्धु की सूक्ति को सार्थक करने वाले नपे-तुले शब्दसमूह से निर्मित इन नियुक्तियों की एक-एक गाथा को ज्ञान का कोश कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । इस सारपूर्ण सांकेतिक शैली में निबद्ध होने के कारण ये नियुक्तियां शास्त्रों के गूढ़ार्थों को हृदयंगम करने और शास्त्रों में निहित अथाह ज्ञान को क्रमबद्ध रूप से कण्ठस्थ करने में सदा से ही सबल साधन समझी जाती रही हैं। इसी कारण आगमों के व्याख्या ग्रन्थों में नियुक्ति-साहित्य का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रहा है। नियुक्तियों में महापुरुषों के जीवनचरित्रों, सूक्तियों, दृष्टान्तों और कथानकों के माध्यम से आगम ज्ञान के साथ-साथ आर्यधरा के प्राचीन धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है, जिसमें हमें उस समय के जनजीवन के आचार-व्यवहार, उसके जीवन-दर्शन और हमारी प्राचीन संस्कृति के दर्शन होते हैं ।
दश सूत्रों के गूढ़ार्थ को स्पष्टतः अभिव्यक्त करने वाली दश नियुक्तियों की संरचना कर आचार्य भद्रबाहु ने जिनशासन की महती सेवा की। जैनसमाज, भद्रबाहु द्वारा किये गये इस महान् उपकार से अपने आपको विगत चौदह-पन्द्रह शताब्दियों से उनका उपकृत और ऋणी समझता चला आ रहा है। वस्तुतः वे जैन जगत् के दिव्य ज्योतिर्धर नक्षत्र थे ।
विगत कतिपय शताब्दियों से नामसाम्य के परिणाम स्वरूप अनेक विद्वान् वीर निर्वाण सं० १७० में स्वर्गस्थ हुए अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु को ही उपरिलिखित दश नियुक्तियों के रचनाकार मानते चले आ रहे थे । परन्तु शोधबुद्धि विद्वानों ने न केवल एक दो, ग्रपितु अनेक सबल प्रमाणों से यह सिद्ध कर दिया है कि नियुक्तियों के रचनाकार व तकेवली भद्रवाह नहीं अपितु उनके स्वर्गस्थ होने के लगभग पौने नव सौ ( ८७५) वर्ष पश्चात् तक विद्यमान निमितज्ञ भद्रबाह (द्वितीय) थे । ' )
"उत्तराध्ययन-नियुक्ति" में स्वयं नियुक्तिकार स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि वे चतुर्दशपूर्वधर नहीं हैं :--
सव्वे एए दारा, मरणविभत्तीइ वणिया कमसो । सगल उणे पयत्थे, जिरण चउद्दसपुव्वि भासति ॥
1 विस्तृत विवेचन के लिये देखिये "जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग २,
२ उत्तराध्ययन-निर्युक्ति, मरण विभक्ति, गाथा सं० २३३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
पृ. ३६३-३७१ । -सम्पादक
www.jainelibrary.org