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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ३६७ (३) आचार्य हरिभद्र (भवविरह) के वि० सं० ७८५ में विद्यमान होने का स्पष्ट उल्लेख एक प्राचीन गाथा में किया गया है जिसे हर्षनिधान सूरि ने अपनी कृति 'रत्नसंचय' में कहीं से उद्धत किया है। वह गाथा इस प्रकार है :-- पणपन्न बारस सए, हरिभद्दसूरि आसीऽपुव्वकई । तेरस सय वीस अहिए, वरिसेहिं बप्पभट्टिपहू ॥२८२॥ अर्थात् - वि० सं० १२५५ में अपूर्व रचनाकार प्राचार्य हरिभद्र सूरि विद्यमान थे और वि० सं० १३२० में बप्प भट्टिसूरि हुए। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे की पुष्टि करने वाले उपर्युक्त प्रमाणों से, नाम साम्य के कारण हुई भ्रान्ति के निराकरण के साथ-साथ यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि विक्रम संवत ५८५ में जिन हरिभद्र नामक आचार्य के स्वर्गस्थ होने का विचार श्रेणि' से उद्ध त गाथा में उल्लेख है, वे युगप्रधानाचार्य हारिल थे और उनके वस्तुतः हरिगुप्त और हरिभद्र ये दो अपर नाम भी थे । ___ इसी नाम साम्य के कारण एक और भ्रान्ति भी बडे लम्बे समय से चली पा रही है। अनेक ग्रन्थकारों ने अपनी यह मान्यता अभिव्यक्त की है कि युगप्रधानाचार्य हरिभद्र (जिनका कि स्वर्गवास वि० सं० ५८५ तदनुसार वीर निर्वाण सं० १०५५ में हमा) ने महानिशीथ की सड़ी-गली और दीमकों से खाई हुई तथा खण्डित-विखण्डित हुई एक मात्र प्रति से, उसमें शोध और शुद्धियां करके महानिशीथ नामक छेदसत्र का उद्धार अर्थात् पुनर्लेखन किया। उपयुंल्लिखित महानिशीथ के द्वितीय अध्ययन की पुप्पिका में दिये हए तथ्यों और महानिशीथ में प्रयुक्त भवविरह शब्द पर विचार करने के पश्चात् यह भ्रान्त धारणा भी अनायास ही निरस्त हो जाती है और यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि महानिशीथ का उद्धार अथवा अावश्यक संशोधन परिवर्धन के साथ पुनर्लेखन वीर नि० सं० १२५५ में उन भाविरह, याकिनी महत्तरासूनुः हरिभद्र ने किया है, जिन हरिभद्र की विद्यमानता का उल्लेख उपरिलिखित गाथा में है।" प्रभावक चरित्रकार की भी यही मान्यता है । युगप्रधानाचार्य हारिल की कोई कृति अभी तक प्रकाश में नहीं पाई है। ' चिरलिखितविशीर्णवर्णभग्नाविवरपत्रसमूहपुस्तकस्थम् । कुशलमतिरिहोद्धार जैनोपनिषदिक म महानिशीथशास्त्रम् ।।२१।। (प्रभावक चरित्र, हरिभद्रसूरिचरितम्, पृष्ठ ७५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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