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________________ ३६६ ] ? [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ महत्तरासूनुः - भवविरह प्राचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा पुनरुद्धरित महानिशीथ की प्रति को बहुत मान्य किया है ।" महानिशीथ के द्वितीय अध्ययन के अन्त में उल्लिखित पुष्पिका के उद्धरण में जिन आचार्यों एवं महान् श्रुतधरों के नाम दिये गये हैं, वे सब प्राचार्य हरिभद्र ( भवविरह) के समकालीन थे। जिनदास गरि महत्तर ने शक सं० ५६८ तदनुसार वि० सं० ७३३ में नन्दीसूत्र चणि की रचना की । आचार्य हरिभद्र ने जिनदासगणि महत्तर द्वारा रचित आवश्यक चूरिंग और नन्दी चूरिंग के आधार पर आवश्यक सूत्र और नन्दी सूत्र की टीकाओं की रचना की। महानिशीथ की गलित- खण्डित आदर्श प्रति से जो उन्होंने महानिशीथ का पुनर्लेखनपूर्वक पुनरुद्धार किया, उसे जिनदास गरिण महत्तर ने मान्य किया, इस प्रकार का स्पष्ट उल्लेख महानिशीथ के द्वितीय अध्ययन की पुष्पिका में है। इससे यह सिद्ध होता है कि प्राचार्य हरिभद्र (भवविरह) निर्विवादरूप से जिनदास गरिण महत्तर के लघुवयस्क समकालीन आचार्य थे | (२) आचार्य हरिभद्र ( भवविरह) ने अपने ग्रन्थों में विभिन्न धर्मावलम्बी जिन दार्शनिकों, ग्रन्थकारों, वैयाकरणों आदि का उल्लेख किया है, उनमें से धर्मपाल का समय वि० सं० ६५६ से ६६९ के बीच का, धर्मकीर्ति का वि० सं० ६६१ से ७०६ तक का वैयाकरण भर्तृहरि का अवसानकाल वि० सं० ७०६ और कुमारिल्ल का समय वि० सं० ७५० के आस-पास का माना जाता है । इससे सिद्ध होता है कि प्राचार्य हरिभद्र वि० सं० ७५० से पश्चात् ही स्वर्गस्थ हुए हैं । " जो एयरम प्रचितचिंतामणिकप्पभूयस्स महानिसीह सुयक्खंधस्स पुव्वायरिसो ग्रासी, तहि चेव खंडाखंडीए उद्देहियाइएहिं हेउहि बहवे पत्तगा परिसडया तहावि प्रच्चंत सुहुमत्थातिसयं ति इमं महानिसीहसुयक्खंध कसिरणपवयरणस्स परमसारभूयं परं तत्तं महत्यंतिक लिङगां नवयरण्वच्छल्लत्तेण बहुभव्वसत्तोवकारयं च काउं, तहा य श्राययिट्ठाए आयरिय हरिभद्देण जं तं तत्थायरिसे दिट्ठं तं सव्वं समतीए साहिऊरण लिहियं ति । अन्नेहि पि सिद्धसे दिवायर, वुड्ढवाइ, जक्खसेण, देवगुत्त जसवद्धरणखमासमरणसीस रविगुत्त नेमिचंद, जिणदासगरि मग सव्वरिसिपमुहेहिं जुगप्पहारण सुयहरेहि बहुमन्नियमिगं ति ॥ ( महानिशीथ ( हस्तलिखित), द्वितीय प्र० के अन्त की पुष्पिका ) Jain Education International राज्ञः पंचसु वर्षशतेषु व्यतिक्रान्तेषु प्रष्टनवतिषु नन्द्याध्ययनचूरिंग समाप्ता । ( नन्दिरि की हस्तलिखित प्रति भण्डारकर इन्स्टीट्यूट, पूना ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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