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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ३६५ महान् टीकाकार, ग्रन्थकार, दार्शनिक एवं विचारक थे। वे आचार्य हरिभद्र. (द्वितीय) विद्याधर कुल के प्राचार्य जिनदत्त के शिष्य थे। आचार्य जिनदत्त के शिष्य आचार्य हरिभद्र अपनी कृतियों की प्रशस्ति में अपने नाम के आगे "धर्मतो. याकिनी महत्तरासूनुः" तथा भवविरह लिखते थे।
युगप्रधानाचार्य हरिभद्र का स्वर्गवास, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, वीर नि० सं० १०५५ तद्नुसार वि० सं० ५८५ में हमा। आपके स्वर्गवास काल का बोध कराने वाली एक प्राचीन गाथा, जिसका कि प्रथम चरण-"पंचसए पणसीए" है, ऊपर उद्धत की गई है। विद्याधर 'शाखा के प्राचार्य याकिनी महत्तरासूनुः-भवविरह का सत्ताकाल वीर नि० सं० १२२७ से १२६७ (वि० सं० ७५७-८२७) तक का रहा है।
इस प्रकार इन दोनों आचार्यों के बीच २०० वर्षों से भी अधिक काल का अन्तराल होते हुए भी नाम-साम्य और उपर्युक्त गाथा में हरिभद्र नाम उल्लिखित होने के कारण पूर्वकाल से ही इस प्रकार की भ्रान्त मान्यता प्रचलित हो गई है कि याकिनी महत्तरासूनुः-भवविरह हरिभद्र सूरि का स्वर्गवास वि० सं० ५८५ में ही हो गया था।
यद्यपि इस सम्बन्ध में प्रस्तुत ग्रन्थमाला के द्वितीय भाग में पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है तथापि यहां कुछ और ऐसे नवीन तथ्य प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिनसे याकिनी महत्तरासूनुः-भवविरह हरिभद्रसूरि का सत्ताकाल निश्चित रूप से विक्रम की आठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से नौवीं शताब्दी के प्रथम चरण तक का सिद्ध होता है । वे तथ्य निम्नलिखित रूप में हैं :
(१) आचार्य हरिभद्र "भवविरह"-ने "महानिसीह" छेदसूत्र की एक
मात्र सड़ी-गली एवं दीमों द्वारा खाई हुई प्रति के आधार पर अपनी मति अनुसार उसका शोध एवं शुद्धिपूर्वक पुनर्लेखन कर उसका पुनरुद्धार किया। सिद्धसेन (तत्वार्थसूत्र के टीकाकार), वृद्धवाई (आचार्य बड़ेश्वर अथवा चित्रपुर गच्छ के प्राचार्य बुढागणि) आचार्य यक्षसेन (हारिलगच्छ के प्राचार्य यज्ञदत्त महत्तर), देवगुप्त (सम्भवतः उपकेशगच्छ के प्राचार्य), जसवद्धरण क्षमाश्रमण (सम्भवतः यशोदेव सूरि हो सकते हैं) के शिष्य रविगुप्त, जिनदास गणि महत्तर (शक सं० ५६८, वि० सं० ७३३ तदनुसार वीर नि० सं० १२०३ में नन्दीचूणि के रचनाकार) आदि लोकविश्रुत श्रुतधरों ने याकिनी
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