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(४) आर्य हारिल ने वीर नि० सं० ६६० में दीक्षा ग्रहरण की थी । इससे यह विश्वास किया जाता है कि ये देवद्विगरि क्षमाश्रमण और २८वें युगप्रधानाचार्य आर्य सत्यमित्र के समय विद्यमान थे एवं श्रमण हारिल ने उस समय के इन दोनों महान् युगपुरुषों की सेवा में रहकर सम्पूर्ण एकादशांगी और अवशिष्ट पूर्वज्ञान का भी अंशतः ज्ञान प्राप्त किया हो एवं आर्य देवगिरिण क्षमाश्रमण के तत्वावधान में वीर नि० सं० ६८० से ६६३ तक हुई ग्रागम-वाचना में भी आर्य हारिल ने महत्वपूर्ण योगदान दिया हो और उनकी इन्हीं सब ग्रात्यंतिक महत्व की सेवाओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने हेतु उपरिलिखित ऐतिहासिक गाथा की रचना की गई हो ।
वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती आचार्य ]
(५) युगप्रधानाचार्य हारिल के नाम पर (संभवतः इनके स्वर्गस्थ होने के पश्चात् ) हारिल गच्छ की किसी समय स्थापना की गई । उस समय तक किसी भी नवीन गच्छ अथवा गरण की स्थापना अधिकांशतः ऐसे महान् श्रमण के नाम पर ही की जाती थी, जो लोकविश्रुत, प्रतिभासम्पन्न और श्रुतसागर का पारगामी विद्वान् हो । आचार्य हारिल के नाम पर एक नवीन गच्छ की स्थापना की गई, इससे भी फलित होता है कि आचार्य हारिल अपने समय के सर्वोत्कृष्ट श्र ुतधर, महान प्रभावक एवं समर्थ युगप्रधानाचार्य थे ।
उपरिवरिणत उल्लेखों से यह निष्कर्ष निकलता है कि युगप्रधानाचार्य हारिल ने अपने युगप्रधानाचार्य काल में हूरण प्राततायी तोरमाण की विशाल वाहिनी के अत्याचारों से संत्रस्त देशवासियों को अभय प्रदान किया ।
श्रार्य हारिल के प्रपर नाम
जैन वांग्मय में युगप्रधानाचार्य आर्य हारिल के तीन नाम उपलब्ध होते हैं । यथा : - ( १ ) हारिल, (२) हरिगुप्त और (३) हरिभद्र ।
"दुस्समास मरणसंघथयं" में युगप्रधान पट्टावली में और हारिल वंश पट्टावली के शीर्षक मात्र में आपके हारिल नाम का ही उल्लेख है । "कुवलयमाला" में आपका नाम हरिगुप्त उल्लिखित है । इससे यह ज्ञात होता है कि आपका दूसरा नाम हरिगुप्त था । प्राचार्य मेरुतुंगसूरि ने अपने एक ऐतिहासिक महत्व के ग्रन्थ "विचारश्रेणि" में एक प्राचीन गाथा उद्धत की है । उस गाथा से यह ऐतिहासिक तथ्य प्रकट होता है कि विक्रम संवत् ५८५ में हरिभद्रसूरि नामक सूर्य अकस्मात् अस्त हो गया। वे भव्यों का कल्याण मार्ग प्रदर्शित करें । विचार रिण में इस गाथा के
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