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। जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
वह घोर रसातल की ओर उन्मुख हो रहा है। उद्योतन सूरि द्वारा कुवलयमाला में किये गये इस उल्लेख से कि 'तारमारण की राजधानी पव्वइया में तोरमाण के गुरु गुप्तवंशावतंस हरिगुप्त ने निवास किया था, यह विश्वास किया जाता है कि इन्हीं युगप्रधानाचार्य हारिल अपर नाम हरिगुप्त अथवा हरिभद्र के प्रथम उपदेश को सुनने के पश्चात् तोरमारण ने इन्हें अपना गरु बना कुछ समय के लिये उन्हें पर्वतिका (पव्वइया) में रहने की प्रार्थना की हो और लोक-कल्याण की भावना से सर्वजनहिताय प्राचार्य हारिल तोरमारण के अनुरोध को स्वीकार कर कुछ काल तक वहां विराजे रहे हों। उन्होंने वहां रह कर अपने अमृतोपम उपदेशों से एक ऐसे नशंस-निर्मम आततायी को जिसे इतिहासकार क्रूरता और नरक का अवतार बताते हैंनरसंहार से विमुख और मानवता की ओर उन्मुख किया । तोरमाण के हृदय परिवर्तन से वस्तुतः जन-साधारण ने सुख की सांस ली। हरिभद्र के इस जनकल्याणकारी महान् ऐतिहासिक कार्य की प्रशंसा घर-घर की जाने लगीं । जो यह एक प्राचीन गाथा आज उपलब्ध होती है, उससे यह प्रमाणित होता है कि युगप्रधानाचार्य हारिल ने लोककल्याणकारी कोई ऐसा महान कार्य किया था जिससे कि वे
उस युग के जन-जन के आराध्य बन गये थे। (३) संभवत: आचार्य हारिल द्वारा किये गये उस अनन्य उपकार के प्रति
कृतज्ञता प्रकट करते हुए किसी अज्ञात कवि ने उनके स्वर्गारोहरण को एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना मानकर उनकी स्मृति को चिरस्थायिनी बनाने के लिये निम्नलिखित ऐतिहासिक गाथा की रचना की :
पंच सए पणसीए, विक्कम कालानो झत्ति प्रत्थमित्रो। हरिभद्द सूरि ए सूरो, भविप्राणं दिसउ कल्लाणं ।।
अर्थात-विक्रम संवत् ५८५ में हरिभद्रसूरि नामक सूर्य अकस्मात् ही अस्त हो गया, वह भव्य प्राणियों का कल्याण का पथ प्रदर्शित करें। ____ इस गाथा में युगप्रधानाचार्य हरिभद्ररि को सूर्य की उपमा दो गई है । इससे यही प्रकट होता है कि युगप्रधानाचार्य हारिल (अपर नाम हरिभद्र अथवा हरि गुप्त) अपने समय के एक महान युगप्रवर्तक, युगस्रप्टा एवं श्रमणश्रेष्ठ थे । यह गाथा मेरुतुंग सूरि ने किसी प्राचीन कृति में से लेकर अपनी कृति “विचारथरिण' में उद्ध त की है।
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