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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवत्ती प्राचार्य ] [ ३६१ में जितना अधिक निखार परिलक्षित होगा, वह महासन्त उतना ही अधिक महान् गिना जायगा। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, यद्यपि युगप्रधानाचार्य हारिल का क्रमबद्ध आद्योपान्त जीवनवृत्त कहीं उपलब्ध नहीं होता तथापि उनके जीवन से सम्बन्धित यत्किचित् सूचनाए जैन साहित्य में कहीं-कहीं केवल संकेत के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं, उनसे उपरिलिखित कसौटी पर शत-प्रतिशत खरी उतरने वाली उनकी महानता का सहज ही आभास हो जाता है । वे संकेत इस प्रकार हैं: (१) अठावीस युगप्रधानाचार्य आर्य सत्यमित्र के स्वर्गस्थ होने पर वीर नि० सं० १००१ में उस समय के महान् प्रतिष्ठित एवं प्रभावक पद युगप्रधानाचार्य पट्ट पर उन्हें अधिष्ठित किया गया। अप्रतिम प्रतिभा, अनुपम प्रकाण्ड पाण्डित्य, विशुद्ध, निरतिचार, निर्मल श्रमणाचार, सार्वभौम-सार्वजनीन लोकप्रियता आदि उत्कृष्ट गुणों के धारक श्रमण श्रेष्ठ को ही उस समय युगप्रधानाचार्य जैसे गौरवगरिमापूर्ण पद पर प्रतिष्ठित किया जाता था-- इससे यह तथ्य स्वतः सिद्ध हो जाता है कि श्रमरणोत्तम हारिल वस्तुतः युगप्रधानाचार्य पद के लिये अपेक्षित सभी गुणों से विभूषित थे, इसीलिये उन्हें युगप्रधानाचार्य पद पर प्रतिष्ठापित किया गया । (२) आर्य हारिल के युगप्रधानाचार्यकाल में हूण आक्रान्ता तोरमारण ने भारत पर भयंकर आक्रमण किया था। इतिहास के प्रायः सभी विद्वानों ने तोरमाण द्वारा किये गये भीषण नरसंहारों के परिप्रेक्ष्य में उसे करता का अधिष्ठाता पिशाच और नरक का अवतार तक बताते हुए लिखा है कि जहां-जहां तक वह बढ़ा वहां-वहां तक के ग्राम-नगर उसके द्वारा किये गये नरसंहारों और व्यापक अग्निकाण्डों से नरक तुल्य वीभत्स लगते थे। व्यापक जन-धन क्षय के उस संक्रान्तिकाल में अहिंसा, एवं शान्ति के अग्रदूत पार्य हारिल ने करता के अवतार तोरमाण को मानव बनाने का दृढ़ संकल्प किया। प्राणों के मोह का परित्याग कर, उत्कट साहस के साथ प्रार्य हारिल ने तोरमाण की राजधानी पव्वइया नगरी की अोर विहार किया। अप्रतिहत विहारक्रम से पव्वइया नगरी में पदार्पण कर हारिलमूरि ने कर हूणराज तोरमाण को उपदेश दिया। प्राचार्य हारिल के अन्तस्तलस्पर्शी उपदेशों से तोरमाण की गहित नारकीय क्रूरता की उन्मादपूर्ण तन्द्रा टूटी। उसे अपने जीवन में सम्भवत: पहली बार यह आभास हुआ कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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