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________________ ३६० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ ... १७ वर्ष की अवस्था में हरिगुप्त के दीक्षित हो जाने की बात सिद्ध हो जाने की स्थिति में जिस सिक्के पर एक अोर 'श्री महाराज हरिगुप्तस्य' और दूसरी ओर पद्म-पिधानयुक्त कलश अंकित है, उसे युगप्रधानाचार्य हारिल का सिक्का मानने की दशा में यह प्रश्न सहज ही उपस्थित होता है कि क्या वे १७ वर्ष की वय प्राप्त होने से पूर्व ही राज्य सिंहासन पर प्रारूढ़ हो गये थे? यदि हां तो किस वय में, कितने वर्ष तक सत्ता में रहे और १७ वर्ष की स्वल्पायु में ही किस कारण दीक्षित हो गये ? राजा के मरने पर उसका वास्तविक उत्तराधिकारी चाहे छोटी से छोटी उम्र का अथवा नवजात ही क्यों न हो, उसे राजा बना दिये जाने की परम्परा पर्याप्त रूपेण प्राचीन रही है, अतः पहले प्रश्न का उत्तर तो सन्तोषजनक रूप से मिल जाता है कि सम्भवतः हरिगुप्त को अल्पायुष्कावस्था में ही राज्यसिंहासनारूढ़ कर दिया गया हो। शेष दो प्रश्नों का सन्तोषप्रद उत्तर तब तक नहीं दिया जा सकता, जब तक कि एतद्विषयक प्रामाणिक उल्लेख उपलब्ध न हों। इन सब तथ्यों पर चिन्तन-मनन के पश्चात् यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि युगप्रधानाचार्य हारिल का जन्म गप्त वंश में हुआ पर वे दीक्षित होने से पूर्व राजा रहे अथवा नहीं, इस सम्बन्ध में न तो निश्चयपूर्वक 'हां' ही कहा जा सकता है और न 'ना' ही। हां, कुवलयमाला के 'तस्स गुरु हरिउत्तो पायरियो पासि गुत्तवंसानो'इस उल्लेख एवं एक ओर 'श्री महाराज हरिगुप्तस्य' तथा दूसरी ओर पद्मपुष्पपिघान वाले कलश से अंकित विक्रम की छठी शताब्दी के आस-पास के ताम्र के सिक्के- इन परस्पर दो एक-दूसरे की पुष्टि करने वाले तथ्यों के आधार पर प्रत्येक मनीषी यह अनुमान अवश्य कर सकता है कि- सम्भव है प्राचार्य हारिल श्रमणपरम्परा में प्रवजित होने से पूर्व कुछ समय तक महाराज रहे हों। अस्तु, किसी भी श्रमण अथवा श्रमणों में अग्रणी श्रमण प्रमुख की महानता किसी भौतिक मापदण्ड से नहीं अपितु आध्यात्मिक मापदण्ड से ही प्रांकी-पहचानी जाती है। अपने श्रमण पूर्व जीवन में वह कोई राजा महाराजा रहा कि साधारण नागरिक, विपुल वैभवसम्पन्न श्रीमन्त रहा अथवा रंक, इस मापदण्ड का एक श्रमण की महत्ता पर विचार के समय कोई विशेष महत्व नहीं। वहां तो महत्व इस बात का रहता है कि उसने स्व तथा पर कल्याण के कौन-कौन से महान् कार्य किये। भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित मूल श्रमण परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखते हुए उसके संरक्षण में-संवर्द्धन में जीवन भर किस प्रकार अथक प्रयास किया और लोक-जीवन के सामाजिक नैतिक एवं आध्यात्मिक धरातल को समुन्नत करने के साथ-साथ प्रभू महावीर के धर्मशासन को किस सीमा तक अभिवृद्ध, अभ्युनत तथा लोकप्रिय बनाया। इस कसौटी पर कसते समय जिस महासन्त के संयमपूत जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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